बढ़ते मकानों के आगे कट गए पुराने पेड़, बदल गया गांव का माहौल
पहले बहन बेटियां सावन में आती थी मायके अब सिर्फ पग फेराई की रश्म तक सीमित
लखनऊ। सावन के महीने में एक ओर जहां प्रकृति भी अपना हरियाली से सिंगार करती है। वहीं दूसरी ओर गांवों का माहौल भी अलग नजर आता है। पहले अधिकांश गांवों में सावन का महीना शुरू होते ही मोहल्ले में लगे पेड़ पर झूला डाला जाता था। सावन में बेटियों को ससुराल से आन कर मायके लाया जाता था। बहन बेटियां अधिकांश नाग पंचमी (गुड़िया) से पहले ही आ जाती थी।

फिर रक्षा बंधन के बाद ही जाना होता था। गांव के लोग बड़े पुराने पेड़ो को मजबूत डाली को देख कर रस्सा व पटरे लगा कर झूला तैयार करते थे। जिसपर बहु बेटियां शाम के वक्त झूला झूलती थी। लेकिन अब यह सब गए जमाने की बात हो गई। अब न गांवों में झूला दिखते है न वह सावन में झूले पर गाये जाने वाले गीत। सिर्फ रश्म अदायगी बची है।

सरसवां गांव की बुजुर्ग महिला पुष्पा सिंह बताती है कि जब उनकी शादी हुई थी तब मोहल्ले में एक बड़ा नीम का पेड़ था सावन आते ही पेड़ से झूला पड़ जाता था घर की बहन बेटियां बहुएं झूला झूलती थी। महिलाये झूला झूलते वक्त सोहर, नकटा, व भक्ति गीत गाते हुए पैएंगा मारती थी।
वही मीसा गांव की रहने वाली महिला राजेश्वरी बताती है कि झूले में पैएंगे के साथ सोहर व नकटा के भक्ति गीत गए जाते थे।

वह बताती है करीब 20 साल से वे झूले पर नहीं बैठी। लेकिन सोहर गीत, झूला झूले रे कन्हैया…, झूला तो पड़ गया अम्बुआ की डाल पर…., नकटा गीत मांगे ननदिया कनगंवा हमार हो…, हमार भरगै गगरिया बलम की अभी नाजुक उमरिया हो…, जैसे गीत आज भी उन्हें कंठस्त है। वह बताती है कि अब सिर्फ यह गाने कहने सुनने व गए जमाने की बात तक सीमित रह गए।
अब मोहल्लों में न पेड़ बचे है न उस तरह झूला झूलने वाली महिलाएं। समय के साथ गांवों में भी पूरा महौल बदल गया है। नई नई शादी के बाद बहन बेटियां सिर्फ पग फेराई की रश्म तक सीमित रह गई। इस लिए अब गांवों से झूले ओझल हो चुके है।