14 रत्नों में से एक देवी लक्ष्मी भी है
14 रत्नों तथा इनका महत्व
भगवान विष्णु के आदेश पर देवता तथा दानवों ने मिलकर समुंद्र को मथने का कार्य किया था। इसके लिए मंदार पर्वत तथा वासुकी नाग की सहायता ली गयी थी। स्वयं भगवान विष्णु अपने कछुआ अवतार में मंदार पर्वत का भार उठा रहे थे ताकि वह रसातल में ना जाये।
इस समुंद्र मंथन में कुल 14 रत्नों की प्राप्ति हुई थी जो सृष्टि के कल्याण में सहायक थे। आज हम आपको एक-एक करके समुंद्र मंथन से निकलें रत्नों के बारे में जानकारी देंगे।

समुंद्र मंथन में कुल 14 रत्नों की प्राप्ति हुई
1. समुद्र मंथन से निकला विष: हलाहल/ कालकूट
समुंद्र मंथन का कार्य मुख्यतया अमृत को पाने के लिए किया गया था लेकिन कहते हैं ना कि अच्छाई के साथ बुराई भी आती है। इसलिये जितना अमृत निकलना था उतनी ही मात्रा में अथाह विष भी समुंद्र के जल से निकला। यह इतना ज्यादा तीव्र तथा विषैला था कि देवता तथा दानव दोनों विचलित हो उठे। जब उनको कोई उपाय नही सुझा तो सभी ने मिलकर भगवान शिव से प्रार्थना की। भगवान शिव ने सृष्टि के कल्याण के उद्देश्य से संपूर्ण विष अपने कंठ में ग्रहण कर लिया। तभी से उनका एक और नाम नीलकंठ पड़ गया। इस विष को कालकूट का नाम भी दिया गया है।
2. कामधेनु
विष के निकलने के पश्चात इसमें से कामधेनु निकली जो कि एक गाय थी। कामधेनु को गायों की प्रजाति में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यह कामधेनु गाय भगवान विष्णु ने ऋषि-मुनियों को दे दी क्योंकि इससे यज्ञ इत्यादि की वस्तुएं प्राप्त की जा सकती थी। कामधेनु गाय के द्वारा यज्ञ-हवन इत्यादि के लिए घी, दूध, मल-मूत्र इत्यादि सभी उपयोगी थे। इसलिये सनातन धर्म में गाय को सर्वश्रेष्ठ पशु माना गया है। इसका एक अन्य नाम सुरभि भी है।
3. उच्चै:श्रवा घोड़ा
इसके पश्चात इसमें से एक उच्च श्रेणी का घोड़ा निकला जिसका नाम उच्चै:श्रवा था। यह एक श्वेत/ सफेद रंग का घोड़ा था जो आकाश में उड़ भी सकता था। यह सात मुख वाला अद्भुत घोड़ा था जो असुरों के राजा बलि को प्राप्त हुआ था। उसकी मृत्यु के पश्चात यह देवराज इंद्र को मिल गया था। उच्चै:श्रवा को घोड़ों का राजा तथा उनमें सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। भागवत गीता में भी श्रीकृष्ण ने स्वयं को घोड़ों में उच्चै:श्रवा कहकर संभोधित किया है। धीरे-धीरे इनकी प्रजाति विलुप्त हो गयी।
4. समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों में से एक हाथी का नाम: ऐरावत हाथी
यह एक श्वेत रंग का अद्भुत हाथी था जो सभी हाथियों में सबसे महान तथा उनका राजा था। यह भी आकाश में उड़ने की क्षमता रखता था। यह देवराज इंद्र ने अपने वाहन के रूप में ले लिया था। इसके पश्चात देवराज इंद्र ने ऐरावत हाथी के सहारे कई युद्ध लड़े तथा जीते। ऐरावत हाथी के अन्य नाम इंद्रहस्ति (इंद्र का वाहन), इंद्रकुंजर, नागमल्ल (युद्ध का हाथी), अभ्रमातंग (बादलों का राजा), अर्कसोदर (सूर्य का भ्राता), श्वेतहस्ति, गज्रागनी इत्यादि है। इसे ऋषि कश्यप तथा कद्रू का पुत्र भी माना जाता है।
5. कौस्तुभ मणि
कौस्तुभ मणि सभी आभूषणों तथा रत्नों में सबसे अनमोल तथा बहुमूल्य था। इसका प्रकाश इतना दिव्य तथा तेज था कि चारो और अलौकिक प्रकाश की ज्योति छा गयी थी। इसे स्वयं भगवान विष्णु ने धारण किया था। द्वाकर युग में भगवान कृष्ण ने जब कालिय नाग को गरुड़ के बंधन से मुक्त करवाया था तब उस नाग ने उन्हें यह मणि पुनः लौटा दी थी। कहते हैं कि अब यह मणि फिर से समुंद्र की गहराइयों में चली गयी है।
6. कल्पवृक्ष
यह एक दिव्य औषधियों से युक्त वृक्ष था जिसे कल्पतरु या कल्पद्रुम के नाम से भी जाना जाता है। इस वृक्ष के अंदर कई गंभीर बिमारियों को सही करने की शक्ति थी। यह वृक्ष भी देवराज इंद्र को प्राप्त हुआ था जिसे उन्होंने हिमालय पर्वत की उत्तर दिशा में सुरकानन नामक स्थल पर लगा दिया था। इसी वृक्ष की औषधियों को बाद में मानव जाति के कल्याण के लिए उपयोग किया गया। आज भी इस वृक्ष की सनातन धर्म में अत्यधिक महत्ता है।
7. रंभा अप्सरा
इसी समुंद्र मंथन में सुंदर वस्त्रों तथा दिव्य आभूषणों को धारण किये हुए एक स्त्री प्रकट हुई जिसे रंभा नाम दिया गया। इसे देवताओं को सौंप दिया गया तथा बाद में यह देवराज इंद्र की राज्यसभा में मुख्य नृत्यांगना बन गयी। रंभा देव इंद्र को बहुत प्रिय थी तथा एक बार जब विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे। तब देवराज इंद्र ने उनकी तपस्या को भंग करने रंभा अप्सरा को ही भेजा था।
8. देवी लक्ष्मी
भगवान विष्णु के द्वारा समुंद्र मंथन का एक प्रमुख उद्देश्य देवी लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करना था। जब वे सृष्टि के संचालन में व्यस्त थे तब देवी लक्ष्मी समुंद्र की गहराइयों में समा गयी थी। जब समुंद्र का मंथन हुआ था तब देवी लक्ष्मी पुनः बाहर आ गयी। उन्होंने बाहर आने के बाद स्वयं जाकर भगवान विष्णु का चयन किया।
9. वारुणी
समुंद्र मंथन से अथाह मात्रा में मदिरा की उत्पत्ति हुई जिसे वारुणी नाम दिया गया। वरुण का अर्थ जल से होता हैं। इसलिये समुंद्र के जल से निकले होने के कारण इसका नाम वारुणी रखा गया। भगवान विष्णु के आदेश पर इसे असुरों को दे दिया गया। इसलिये ही हम पाते हैं कि असुर हमेशा मदिरा/ वारुणी/ शराब के नशे में ही डूबे रहते थे।
10. चंद्रमा
इसी समुंद मंथन में चंद्रमा की उत्पत्ति हुई थी व जल से निकले होने के कारण ही इसे जल का कारक कहा जाता है। इसे स्वयं भगवान शिव ने अपनी जटाओं में धारण किया था।
11. समुद्र मंथन से निकले शंख का नाम: पांचजन्य शंख
समुंद्र मंथन के दौरान पांचजन्य शंख की उत्पत्ति हुई जो सभी शंखों में सबसे ज्यादा दुर्लभ है। शंख को सनातन धर्म में अति शुभ कार्य में प्रयोग में लिया जाता है तथा मंदिरों, पूजा स्थल इत्यादि में यह पाया जाता है। यह शंख भगवान विष्णु को प्राप्त हुआ तथा यह मान्यता हैं कि जहाँ शंख होता है वही माता लक्ष्मी का भी वास होता है। इस शंख की ध्वनि को अत्यधिक शुभ माना गया है।
12. पारिजात
समुंद्र मंथन के समय एक और दिव्य औषधियों से युक्त वृक्ष निकला जिसे पारिजात वृक्ष के नाम से जाना जाता है।यह वृक्ष इतना ज्यादा चमत्कारी था कि इसको छूने मात्र से ही शरीर की सारी थकान मिट जाती थी।देवी-देवताओं की पूजा के समय पारिजात वृक्ष के पुष्प चढ़ाना शुभ माना जाता है।
13. शारंगधनुष
यह एक चमत्कारिक धनुष था जो 14 रत्नो में से एक था तथा जो भगवान विष्णु को प्राप्त हुआ था ।कहते हैं कि इसे स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने बनाया था।
14. भगवान धन्वंतरि तथा अमृत कलश
अंत में भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। वे अमृत को असुरों से बचाने के उद्देश्य से आकाश में उड़ गए लेकिन असुरों ने अपनी तेज गति तथा शक्ति से उन्हें पकड़ लिया तथा अमृत कलश छीन लिया। इसके पश्चात भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर यह कलह समाप्त की तथा देवताओं को अमृतपान करवाया।
समुद्र मंथन क्यों हुआ था?
कुछ समय पूर्व ही नए कल्प की शुरुआत हुई थी और सतयुग का प्रारंभ हुआ था। भगवान विष्णु ने अपने प्रथम अवतार मत्स्य अवतार के माध्यम से नयी श्रृष्टि की रचना की थी व मानव जाति का कल्याण किया था किंतु प्रलय के कारण सृष्टि की बहुमूल्य वस्तुएं समुंद्र की गहराइयों में चली गयी थी जिनमे से एक स्वयं माँ लक्ष्मी भी थी।
इन सभी का पृथ्वी तथा मानव सभ्यता के कल्याण के उद्देश्य से बाहर आना आवश्यक था। यह काम भगवान विष्णु केवल देवताओं के माध्यम से नही कर सकते थे। इसके लिए देवता व दानवों की आवश्यकता थी जो समुंद्र को मंथने का कार्य कर सके।
इसके लिए भगवान विष्णु ने सभी व्यवस्था कर दी लेकिन जब समुंद्र मंथने का कार्य शुरू हुआ तो मंदार पर्वत लगातार नीचे जा रहा था। जिस कारण समुंद्र को मंथने का कार्य असंभव प्रतीत हो रहा था। उस मंदार पर्वत को विशाल समुंद्र की गहराइयों में जाने से केवल विष्णु ही रोक सकते थे। इसके लिए उन्होंने कछुए का अवतार लेने का सोचा क्योंकि उसकी पीठ कठोर होती हैं।
इसी कारण भगवान विष्णु ने अपने दूसरा अवतार कछुए के रूप में लिया तथा मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया जिस कारण समुंद्र मंथन का कार्य संपन्न किया तथा 14 रत्नों की प्रप्ति हो सकी।
Anupama Dubey