- सेंट थामस चर्च पर सभी हैं फिदा, गिरजाघर चौराहे का नाम भी इसी पर पड़ा
राधेश्याम कमल
गोदौलिया गिरजाघर स्थित सेंट थामस चर्च पर सभी फिदा हैं। सभी लोग इसे गिरजाघर चौराहे के नाम से जानते हैं। प्रभु यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक सेंट थामस ने कभी प्रभु यीशु मसीह की आराधना की थी। सेंट थामस थामस चर्च आज भी आकाश की ऊचाइयों को छूता हुआ नजर आता है। यह समूचा इलाका आज गिरजाघर के नाम से मशहूर है। मसीही समाज के जानकारों की मानें तो सेंट थामस सैकड़ों साल पहले भारत यात्रा पर मद््र्रास से होकर काशी आये थे। काशी में गोदौलिया पहुंचने पर उन्होंने प्रभु यीशु का क्रूस लगा कर उस स्थान पर ईसा मसीह की आराधना की। इसके बाद वह मद्रास लौट गये। उस समय वहां सूनसान जंगल था। आज की तरह न तो इतना बड़ा बाजार था और न ही आकाश छूती इमारतें थीं। देश के सबसे प्राचीन गिरजाघरों में एक ईसाई धर्म के इस प्रार्थना स्थल का जिक्र थामस ने मद्रास पहुंच कर अपने सफरनामा में किया था। भारत की सरजमीं से सेंट थामस को इतनी मोहब्बत थी कि मद्रास में ही उनकी मौत हो गई। वह हमेशा के लिए भारत के होकर रह गये।

सैकड़ों साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी का एक अंग्रेज सिपाही जॉन थोमर ने मद्रास में सेंट थामस का सफरना्मा पढ़ा और इस पवित्र जगह का जिक्र देख कर वह गोदौलिया की खोज की। गोदौलिया आज जिस जगह पर है वहीं पर थामस ने आराधना की थी। वहां पर ही जॉन ने चर्च की बुनियाद रखी। कंपनी शासन काल की अनूठी वास्तुकला का दस्तावेज सेंट थामस चर्च उन्हीं के नाम पर रखा गया है। आज ये चर्च सभी के लिए आकर्षण का केन्द्र है। हर संडे को चर्च में इससे जुड़े मसीही समाज के लोग प्रभु यीशु की आराधना करते हैं। प्रोटेस्टेंट ईसाई वर्ग के इस आराधना केन्द्र के बारे में पादरी न्यूटन स्टीवन बताते हौं कि यह चर्च चर्चेज आफ नार्थ इंडिया (सीएनआई) की ओर से संचालित होती है। यहां देशी-विदेशी सभी सैलानी आकर चर्च का इतिहास जानकर अभिभूत होते हैं।
ईसाइयों का सबसे प्राचीन स्थल रामकटोरा चर्च
- खूबसूरत इतिहास को समेटे हुए है चर्च
लहुराबीर के समीप स्थित रामकटोरा चर्च से पूर्वांचल के सभी मसीही समाज के लोग आस्था रखते हैं। यह चर्च प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियन वर्ग का प्राचीन स्थल है जिसका भवन अपने भीतर उस दौर के खूबसूरत इतिहास को समेट हुए हुए है। चर्च के दस्तावेज के मुताबिक 1835 से पहले यह चर्च बन चुका था। क्योंकि अभिलेखों में है कि 1835 में बाइबिल एण्ड मिशनरी फेलोशिप ट्रस्ट से रामकटोरा चर्च से जुड़ा हुआ था। इसे लाल और सफेद रंग से खूबसूरती इसलिए प्रदान की गई थी कि लाल रंग शहादत और सफेद रंग शांति का प्रतीक होता है। चर्च के पुराने नक्शे में यह भी जिक्र है कि जहां पर आज बाजार है वहां कभी ईसाई कब्रिस्तान और कालोनी थी। आजादी के वक्त जब देश में उथल पुथल का माहौल था तो लोगों ने चर्च की जमीन पर कब्जा कर लिया। यही वजह है कि यह चर्च एक छोटे से कैम्पस में सिमट कर रह गया है। रामकटोरा का चर्च वक्त के सितम का शिकार हो गया है। 1 फरवरी 1958 को इस चर्च परिसर का पुन: निर्माण किया गया।

ईसा मसीह के आस्था का केन्द्र तेलियाबाग चर्च
- 1858 में किया गया था स्थापना
देश में मसीही समाज का एक बेशकीमती दस्तावेज के रूप में तेलियाबाग सीएनआई चर्च को माना जा सकता है। मिट्टी और लखौरिया इस्रंट से बना यह चर्च अपने आप में उस दौर का इतिहास बयां करता है। चर्च की स्थापना 1856 में जान मूलेट ने की थी वो ही इसके पहले पादरी थे। चर्च के दस्तावेज के मुताबिक जमींदार बटुक दयाल सिंह से यह जमीन खरीदी गई थी। चर्च के पादरी की मानें तो उस दौर में यहां प्रभु ईसा मसीह को चाहने वाले आज से अधिक थे। खासकर अंग्रेज सैनिकों से यह पूरा इलाका आबाद था। अन्य गिरजाघरों में ईसाइयों की बढ़ती आबादी के चलते ह७ी प्रभु ईसा की आराधना के लिए एक और चर्च की जरूरत महसूस हुई। इसी के चलते इस चर्च की स्थापना की गई। प्रोटेस्टेंट वर्ग के इस प्राचीन चर्च की इमारत अपने भीतर उस दौर का खूबसूरत इतिहास समेटे हुए है। बताते हैं कि 19 फरवरी 1930में इस चर्च का प्रबंधन लंदन मिशनरी सोसायटी ने अपने हाथों में ले लिया था। मगर तीन साल बाद 1993 में चर्च को मैथेडिश ट्रस्ट असोसियेशन की स्थापना करके उसकी देखरेख सोसायटी ने ट्रस्ट को सौंप दी। बाद में 1970 में मसीही समुदाय की बैठक में चर्च आॅफ नार्थ इंडिया संस्था बनायी गई। उस दौेर के सभी प्रोटेस्टेंट चर्च इससे जोड़ दिये गये। तब से इस चर्च का प्रबंधन सीएनआई ही करता है। इस चर्च की हद कभी कैंटोमेंट तक फैली हुई थी। बाद में रेलवे लाइन बिछी तो चर्च का दायरा सिमट गया। चर्च का मुख्य गेट कभी तेलियाबाग की ओर कुलता था लेकिन आज उस गेट का अस्तित्व अतिक्रमण करके खत्म कर दिया गया है।

ब्रिटिश काल में बना है सेंट पाल चर्च सिगरा
- अंग्रेज आर्किटेक्ट जान पॉल ने रखी थी इसकी बुनियाद
सेंट पॉल चर्च सिगरा पूर्वांचल के लाखों मसीही समुदाय की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। ब्रिटिश हुकुमत के दौर का यह चर्च खूबसूरत इतिहास को समेटे हुए खड़ा है। सवा सौ फीट लंबे इस चर्च पर सिगरा इलाके में आते ही लोगों की सहज ही नजर पड़ती है।लखौरिया इस्रंट से बने इस चर्च को उस दौर के अंग्रेज आर्किटेक्ट जॉन पॉल ने क्रास का रूप देते हुए 1841 में इसकी संगे बुनियाद रखी थी। उन्हीं के नाम पर चर्च का नाम सेंट पॉल रखा गया। यहां पर करीब 150 किलो का घंटा ब्रिटेन से खास प्रार्थना के लिए मंगाया गया था। यहां पर लगी टाइल्स इलाहाबाद से मंगायी गई थी। चर्च में उस समय तीन घड़ियां इंगलैण्ड से मंगा कर इसकी बाहरी दीवारों पर इसलिए सजाया गया था कि चर्च आने वाले समय का ख्याल रखें। साथ ही उधर से गुजरने वाले भी समय को देख सकें। घड़िया अब भी चर्च की दीदार पर टंगी हुई हैं लेकिन वक्त के साथ उनकी सुइयों की रफ्तार थम सी गई है। कभी इन घड़ियों का घंटा बजते ही सिगरा ह७ी नहीं वहां से गुजरने वाले सभी लोग अपनी घड़ी मिलाते थे। लोग इसे घंटाघर के नाम से भी जानते थे।यह चर्च भी 1970 में जब सीएनआई की स्थापना हुई तो यह चर्च उससे जुड़ गया। यहां पर संडे के अलावा क्रिसमस, न्यू ईयर, गुडफ्राई डे, इस्टर आदि मनाये जाते हैं।
