Varanasi: देश का इकलौता शहर जहां अकाल मृत्यु और अतृप्त आत्माओं की शांति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध होता है। पीपल के पेड़ पर सिक्का रखकर पितरों का उधार चुकाया जाता है। पिशाचमोचन कुंड के पीपल के पेड़ से भी कई मान्यताएं जुड़ी हैं। पूर्णिमा के श्राद्ध के साथ ही 17 सितंबर से पितरों के श्राद्ध का पक्ष आरंभ हो जाएगा। पितृ पक्ष पर तर्पण के लिए आने वालों का सिलसिला शुरू हो चुका है। पिशाचमोचन कुंड पर कर्मकांड के अजीबो गरीब विधान श्रद्धालुओं के लिए आश्चर्य से कम नहीं हैं।

पिशाचमोचन कुंड (Varanasi) का पीपल पेड़ मान्यता का साक्षी है। पेड़ में ठोंके गए असंख्य सिक्के और कील किसी न किसी अतृप्त आत्मा का ठिकाना है। पीपल के पेड़ पर मृत व्यक्ति की तस्वीर और उनके किसी न किसी प्रतीक चिह्न को भी लगाया जाता है। अकाल मृत्यु से मरने वालों के लिए पिशाचमोचन पर ही मुक्ति का द्वार खुलता है। यहां देश-विदेश से लोग अपने पितरों का तर्पण करने के लिए आते हैं, ताकि पितर सभी बाधाओं से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकें और यजमान भी पितृ ऋण से मुक्त हो सकें।
पेड़ में सिक्के या कील गाड़ने का विधान 12 महीने का
तीर्थ पुरोहित दीपक पांडेय ने बताया कि पेड़ में सिक्के या कील गाड़ने का विधान 12 महीने का होता है, लेकिन पितृ पक्ष के 15 दिन बेहद खास माने जाते हैं। ये पक्ष पितृ लोक में रहने वाले पितरों और प्रेत योनियों में भटकती आत्माओं का मुक्ति द्वार माना गया है। गया में पितरों का श्राद्ध होता है। लेकिन, पिशाचमोचन (Varanasi) में पितरों के अलावा घात प्रतिघात और अकाल मृत्यु में मारे गए ज्ञात अज्ञात आत्माओं के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध होता है।

Varanasi: गरुण पुराण में भी है वर्णन
गरुड़ पुराण में कुंड का वर्णन है। काशी खंड के अनुसार पिशाच मोचन तीर्थ स्थल गंगा के धरती पर आने से पहले स्थित था। कुंड (Varanasi) के किनारे बैठकर अकाल मृत्यु के शिकार हुए पितर के लिए श्राद्ध कर्म करने से उन्हें प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है। तीर्थ पुरोहित अजय पांडेय ने बताया कि ये कुंड अनादि काल से पिशाचमोचन में स्थित है तब इसे विमलोदक सरोवर के नाम से जाना जाता था।

अश्वदान की है परंपरा
काशी (Varanasi) विद्वत कर्मकांड परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष आचार्य अशोक द्विवेदी का कहना है कि काशी को प्रथम पिंड कहते हैं। इसलिए सबसे पहले लोग काशी में पिशाचमोचन कुंड पर आकर पिंडदान करते हैं। उसके बाद गया और फिर अंत में केदारनाथ जाते हैं। पिशाचमोचन तीर्थ पर अश्वदान करने की परंपरा है जो ना तो प्रयागराज में होती है और ना ही गया में। अश्वदान के बाद ही यजमान प्रेत कुंड में पिंड डालने का अधिकारी होता है।