Flashback 1952: यूपी ही नहीं पूरे देश की सबसे हॉट लोकसभा सीट वाराणसी में अंतिम चरण यानी 1 जून को वोट डाले जाएंगे। आज पूरी दुनिया की नजरें वाराणसी लोकसभा सीट पर टिकी हुई हैं। चुनावी बिसातें बिछ चुकी हैं। इस सीट से नरेंद्र मोदी और अजय राय जैसे दिग्गज मैदान में हैं। वहीं, वाराणसी की जनता अपने पहले सांसद की त्याग की भावना को आज भी याद करती है। वो नाम है डॉ. रघुनाथ सिंह…आज हम ये नाम इसीलिए ले रहे क्योंकि आज का जमाना भूल गया है कि क्या होता है बलिदान, क्या होता है त्याग, और क्या होती है सादगी, आइए जानते हैं बनारस के पहले सांसद की दिलचस्प कहानी…
Highlights
न जाने दिमाग में कितने खाने होते है, जिनमें स्मृतियां ठूँस ठूंस कर भरी होती हैं, जरा सी दस्तक दी नहीं कि बाहर आना शुरू। आज जाने अनजाने ऐसे ही एक खाने की दस्तक पड़ी, फिर क्या था पुरानी यादों के अक्स उभरने लगे। निगाहों में तैरने लगा एक बेहद शालीन और खामोश सा बुजुर्ग चेहरा , जिस्म पर मोटी खादी का धोती कुर्ता , हाथ में दो मोटी सी किताबें ।
1952 से 1967 तक रहे बनारस के तीन बार के सांसद
वो रिक्शे पर किनारे बैठे हुए और रिक्शा वाला आवाज लगा रहा-एक सवारी बीएचयू , एक सवारी लंका। ये और कोई नहीं ये डा. रघुनाथ सिंह हैं , 1952 से लगायत 1967 तक बनारस के तीन बार के सांसद। पूछने पर लोगों ने बताया कि वो नियमित बीएचयू के भारत कला भवन की लाइब्रेरी जाते थे और वहाँ घण्टों किताबें पढ़ते थे। फर्क सिर्फ इतना कि कभी पूरा रिक्शा तो कभी आधी सवारी तय कर लेते।

अब आप सोचिये [Flashback 1952] कि आज के जमाने में क्या होगा कोई ऐसा व्यक्ति वो तो सांसद रहे लेकिन अब तो कोई आम आदमी भी ऐसा नहीं करेगा कि रिक्शे पर आधी सवारी किसी और को बैठाकर अपना सफ़र तय करे क्या अब के जन प्रतिनिधि ऐसा करेंगे? अब तो पार्षद भी दस लाख की गाड़ी से नीचे पाँव नही धरते। कहाँ से कहाँ पहुँच गयी राजनीति और कैसे कैसे लोग हो गए राजनेता , सोच कर मन सिहर उठता है। सादगी से कोसो दूर और ईमानदारी पास नहीं फटकती।
कभी सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल नहीं किया
खैर हम बात करते हैं एक ऐसे बड़े शख्सियत [Flashback 1952] की जिनका पद जरुर बड़ा था लेकिन वो एक आम सी जिन्दगी जीते थे उनमें त्याग और बलिदान की ऐसी भावना थी कि मात्र 1 रुपए की तनख्वाह पर काम किया, कभी सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल नहीं किया। रिक्शे की सवारी कर जनता के दुखों को सुनते थे। जैसा कि हमने बताया कि वो रोजाना लाइब्रेरी जाते थे पुस्तकालय में डा. रघुनाथ सिंह का टेबुल पर उनकी पुस्तकें भी हम लोग उस पर पहले से ही रखवा दी जाति थी ताकि उन्हें इस उम्र में आलमारी या रैक से किताबें उतारने रखने की जहमत न उठानी पड़े।

सादगी और त्याग की प्रतिमूर्ति थे डॉ. रघुनाथ सिंह
लोगों को कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वो तीन बार सांसद और जहाजरानी निगम के चेयरमैन रह चुके हैं ऐसा लगता था कि मानो कोई व्यक्ति बैठा है – सदैव सरल , सादा और मित्रवत व्हवहार। सचमुच क्या लोग थे वो [Flashback 1952] क्या सोच थी उनकी। अब तो ऐसे लोग खोजे नहीं मिलते। ये कहना गलत नहीं होगा कि बात भले ही बहुत पुरानी हो, लेकिन आज के नेताओं के लिए सीख है। आज के दौर में विधायक-सांसद या फिर मंत्री बनने के लिए नेता जोड़-तोड़ में कसर बाकी नहीं रखते हैं।
[Flashback 1952] तीन बार ठुकराया मंत्री पद
एक जमाना वो भी था जब डॉ. रघुनाथ सिंह ने केंद्रीय मंत्री [Flashback 1952] बनने के प्रस्ताव को कई बार ठुकरा दिया था। दरअसल, डॉ. रघुनाथ सिंह को संतान नहीं थी। औरंगाबाद के पुश्तैनी मकान में उनके भतीजे अकबाल नारायण सिंह परिवार के साथ रहते हैं। पुरानी बातों की बाबत अकबाल बताते हैं कि पं. नेहरू बेनियाबाग में केवल एक बार सभा करने पहुंचे थे। इसके बाद डॉ. रघुनाथ सिंह लगातार तीन बार जीते। तीनों बार उन्हें मंत्री पद दिया गया, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। मंत्री पद उनको सरकारी नौकरी की तरह लगती थी। वह आम आदमी की भावनाओं को समझकर उनकी सेवा करना चाहते थे। उन्होंने कभी सरकारी चीजों का इस्तेमाल नहीं किया।
आजादी की जंग में महज 11 साल की उम्र में उन्हें 34 दिनों तक जेल में रहना पड़ा। स्वतंत्रता सेनानी [Flashback 1952] होने के बावजूद उन्होंने कभी पेंशन नहीं ली। उनका मानना था कि यह पैसा किसी जरूरतमंद के काम आएगा। ईमानदारी और सादगी की वजह से उनका कद इतना बड़ा था कि प्रधानमंत्री से कभी भी मिल सकते थे।