- काशी पुराधिपति बाबा विश्वनाथ का मंदिर है तमिलनाडु और काशी के रिश्तों की मजबूत डोर
- काशी में सबसे पहले अय्यर परिवार ने दक्षिण भारतीय व्यंजनों को बीएचयू के छात्रों को परोसा फिर 1942 में खोला पहला दक्षिण भारतीय व्यंजनों को रेस्टोरेंट अब यह व्यंजनों आमो खास की है पसंद
- दक्षिण भारत के इस परम्परागत व्यंजन को आज भी अय्यर कैफे में उसी परम्परा के साथ लोगों तक परोसा जा रहा है
- तमिल, आन्ध्रा, कर्नाटक, चेन्नई व दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों से आये सैकड़ों परिवारों ने यहीं बनाया आशियाना और कचौड़ी जलेबी को इडली डोसा से दी टक्कर
- काशी में अब ऐसे बहुत से परिवार के सदस्य हैं जिन्हें सुबह के स्थानीय परम्परागत नाश्ते के बदले पसंद आता है इडली, डोसा
- मां अन्नपूर्णां व बाबा विश्वनाथ मंदिर की ओर से संचालित अन्न क्षेत्र में भी भक्तों में 365 दिन परोसते हैं इडली, चावल सांभर
काशी सिर्फ शब्द नहीं बल्कि आध्यात्म का वह संगम है जहां मोक्ष की प्राप्ति सहज रुप से हो जाती है। जिस आवागमन से मुक्त होने के लिए मुनियों ने वर्षों तक कंदराओं में तपस्या किया वही मोक्ष काशी में सिर्फ वास करने से मिल जाता है। यही कारण है कि इस नगरी में पूरे देश से लोगों का आना हो रहा है। कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने इसी स्थान को अपनी कर्मभूमि बना ली। वैसे तो इस शहर में पूरे देश के लोग आते हैं लेकिन इनमें दक्षिण भारतीय लोगों की संख्या ज्यादा है। दक्षिण भारतीय में भी तमिलनाडु के लोगों की संख्या बहुतायत है। शायद उन्हीं के संख्या बल पर अब काशी की परम्परागत खान पान पर दक्षिण भारतीय व्यंजनों का रंग चढ़ने लगा है। इस शहर के कई ऐसे बाशिंदे हैं, जो अब कचौड़ी जलेबी के बदले इडली, डोसा, उत्पम को अपने नाश्ते या फिर दिन के खाने में तरजीह दे रहें हैं।
दक्षिण भारत के लोगों का मानना है कि मां के गर्भ की तर्ज पर काशी में नौ माह वास करने से फिर इस संसार में भटकने की जरुरत नहीं होती। यही कारण था कि आज से पचास साल पहले दक्षिण के विभिन्न शहरों से काशी आने वाले श्रद्धालु अपने परिवार से विदाई लेकर आते थे कि इसी स्थान पर मुक्ति मिल जाए। समय बदला तो इसे लोगों ने नौ दिन कर दिया। उसी समय के कई ऐसे परिवार ने काशी में दस्तक दी, और फिर जीवन यापन के लिए अपनी परम्पराओं के अनुरुप नाश्ता व खाना को बाजार में पेश किया। काशी के खानपान की परम्पराओं से भिन्न था तो लोगों ने पहले इसे पसंद नहीं किया, लेकिन धीरे-धीरे इसकी सुगंध और स्वाद ने लोगों के दिलों पर अपनी गहरी छाप छोड़नी शुरू कर दी। यही स्वाद और सुगंध आज हर खासो आम का पसंदीदा होता जा रहा है।

मनौती पूरा करने काशी आये अय्यर परिवार ने इस व्यंजन की रखी नींव
गोदौलिया के भीड़ भाड़ वाले रास्ते से गंगा घाट की ओर चलने पर दाहिनें हाथ लगभग 75 साल पुराना रमन कटरा है। इस कटरे में है अय्यर्स कैफे, जहां दक्षिण भारतीय व्जंजनों की सभी वैरायटी उपलब्ध है। इस कैफे में चौथी पीढ़ी के रुप में बैठने वाले रामचंद्रन अय्यर बताते हैं कि उनके दादा के पिता रामास्वामी अय्यर आज से लगभग सवा सौ साल पहले तमिलनाडु के पालघाट से काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर में मानी गयी एक मनौती को पूरा करने आए तो उनके साथ उनके दादा सुब्बमणयम अय्यर छोटी उम्र में साथ आ गये। बाबा विश्वनाथ के दर्शन के बाद उन्हें लगा कि अब काशी को ही अपना ठीकाना बनाना चाहिए। वह भी इसलिए कि उस दौर में सुगम साधन ना होने के चलते दक्षिण भारत से काशी आने में ही डेढ़ से दो महीने का समय लग जाता था। काशी में वह आ तो गये लेकिन जाने में फिर वही तीन माह की मशक्कत। इसलिए उन्होंने बाबा विश्वनाथ के इस नगरी में ही अपना ठीकाना बना लिया।

ऐसे शुरू हुआ काशी में दक्षिण भारतीय व्यंजनों का दौर
रामचन्द्रन अय्यर बताते हैं, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दक्षिण भारत के छात्र पढ़ने आते थे। उन छात्रों को दक्षिण भारतीय व्यंजन काशी में ना मिल पाने का मलाल था। ऐसे में उनके पूर्वजों ने उन छात्रों के लिए दक्षिण भारतीय व्यंजनों परोसने की सोची। फिर क्या था, हनुमान घाट पर रहने वाले स्थान से वह स्वयं इन सभी वस्तुओं को बनाते और पहुंच जाते थे बीएचयू में छात्रों के बीच। अपने प्रांत के नाश्ते व भोजन को पाकर छात्रों के चेहरे खिल उठे। यह सिलसिला वर्षो तक चला। एक दिन छात्रों के दल ने उन्हें हॉस्टल में ही रहकर इस व्यंजन को बनाने व परोसने का ऑफर दिया तो वह राजी हो गये। फिर क्या था, वहां रहकर व्यंजनों का दायरा बढ़ता गया और छात्रों की जमात भी बढ़ती गयी। एक दिन ऐसा आया कि लंका पर 1942 में मालवीय जी की प्रेरणा से दक्षिण भारतीय कैफे की शहर में पहली नींव रखी। अब इस रेस्टोरेंट में मिलने वाले दक्षिण भारतीय व्यंजनों पर आमो खास का अधिकार हो गया। लोगों की ओर से इसे पसंद किये जाने लगा। उस दौर में काशी में दक्षिण भारतीय व्यंजनों का यह पहला रेस्टोरेंट था। फिर गोदौलिया क्षेत्र में रमन कटरा बनकर तैयार हुआ और यहां अय्यर कैफे की नींव रखी गयी। रामचंद्रन बताते हैं कि उनके दादा के पिता रामा स्वामी अय्यर, उनके दादा सुब्रमणियम अय्यर, उनके पिता बालकृष्ण अय्यर ने उस समय जिस स्वाद की नींव रखी थी, तब से लेकर आज तक उस स्वाद की विश्वसनियता हमारी ओर से भी बरकरार रखी गयी है। उनके साथ उनके एक भाई बलराम अय्यर और उनके बेटा इस कैफे को संचालित करते हैं।

फिल्टर कॉफी को भी लोगों तक पहुंचाया
अय्यर्स कैफे में मिलने वाली फिल्टर कॉफी यूहीं नहीं बना दी जाती, इसके लिए कॉफी भी दक्षिण भारत से मंगाया जाता है। रामचंद्रन बताते हैं कि पहले उन्हीं लोगों द्वारा दक्षिण भारत से कॉफी के बीज को मंगाया जाता था इसी जगह सूखाकर पीस कर काशी के अन्य स्थानों पर सप्लाई की जाती थी आज समय बदला तो कॉफी पाउडर मंगवाते हैं। बताते हैं कि आज भी उन लोगों की ओर इस कॉफी पाउडर की सप्लाई की जाती है।

ऐसे तैयार होती है फिल्टर कॉफी
रामचंद्रन बताते हैं कि अय्यर्स कैफे की कॉफी को दक्षिण भारत से आज भी मंगाया जाता है। उसी को एक स्टील के डिब्बे में लगभग दो लीटर कॉफी को रखा जाता है डिब्बे की पेंदी (निचला हिस्सा) में महीन सुराख होता है जहां से कॉफी फिल्टर होती है इस दो लीटर कॉफी को फिल्टर करने में पांच से सात मिनट का समय लग जाता है। ऊपर से दूध और हल्की चीनी के साथ बन गयी दक्षिण भारत की तरह की कॉफी।

अब सौवें साल की तैयारी में हैं
रामचंद्रन बताते हैं कि 1926 में इस व्यंजन को काशी में परोसा गया तो अब उसे 100 साल पूरा करने में कुछ ही साल बाकी है इसे धूमधाम से मनायेंगे। पूर्वजों ने जो विरासत दी है, उसे आगे बढ़ाते रहेंगे हमारे बेटे भी इसे आधुनिक रुप देकर आगे बढ़ाने की ओर अग्रसर हैं। बताते हैं कि अय्यर एक सरनेम है। इसको किसी के नाम के साथ लगाने पर आप जान सकते हैं कि वह तमिलनाडु का ही निवासी है। अय्यर सर नेम तमिलनाडु के लोग ही लगाते हैं।
अय्यर्स कैफे जैसा इस शहर में कोई रेस्टोरेंट नहीं
मीरघाट के रहने वाले काशी हिन्दू श्विविद्यालय से सेवानिवृत्त पृथ्वी नाथ पंचोली ने बताया कि वह लगभग 35 सालों से इस रेस्टोरेंट में दक्षिण भारतीय व्यंजन का सेवन कर रहें हैं, बताते हैं कि उन्हें अगर कुछ बाहर खाना हो तो इस रेस्टोरेंट के अलावा कहीं और जाना पसंद नहीं। क्योंकि अगर सही में दक्षिण भारतीय व्यंजन का स्वाद लेना हो तो अय्यर्स कैफे जैसा इस शहर में कोई रेस्टोरेंट नहीं।

चिकित्सकों की राय में दक्षिण भारतीय व्यंजनों के फायदे
राजकीय आयुर्वेद कॉलेज व चिकित्सालय के काय चिकित्सा के डॉ० अजय बताते हैं कि डोसा इडली भले ही दक्षिण भारत का व्यंजन हो, लेकिन ये पूरे भारत में पूरे शौक से खाई जाती है। चूंकि काशी में दक्षिण भारत के लोगों को आगमन ज्यादा है इसलिए इस व्यंजन को यहां पर हर चौराहे पर लगे अस्थायी ठेले पर देखा जा सकता है। इसके अलावा काशी के सभी फाइव स्टार रेस्टोरेंट व छोटे से खानपान की दुकान पर इसे तरजीह दी जा रही है। बताते हैं कि प्लेन डोसा, मसाला डोसा, मैसूर डोसा, प्याज डोसा, पनीर डोसा, रवा डोसा जैसी डोसे की न जानें कितनी वैरायटी उपलब्ध रहती हैं। ये काफी हेल्दी भी होता है। दाल और चावल से मिलकर बने होने के चलते आसानी से पच जाता है, साथ ही इससे साथ ही नारियल की चटनी और सांबर में मिक्स लौकी, कोहड़ा, बोड़ा और सभी किस्म की सब्जियां शरीर के लिए फायदे मंद हैं।
