- भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सीक्रेट डाक्यूमेंट्स थे अपने घर
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन इस समय विवादों में घिरे हैं। बाइडेन के निजी घर से कुछ ऐसे दस्तावेज मिले हैं, जो कि उनके घर में नहीं होने चाहिए थे। ये दस्तावेज अमेरिका की सुरक्षा से जुड़े हैं। कुछ ही महीनों पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी इन्हीं विवादों में घिर गए थे। राष्ट्रपति आवास वाइट हाउस छोड़ने के बाद उनके निजी रिसोर्ट से कई ऐसे दस्तावेज मिले थे। जो कि देश की सुरक्षा को खतरा पैदा कर सकते हैं।
शायद आप सोच रहे होंगे कि ऐसा केवल अमेरिका में ही होता है, लेकिन हम आपको बता दें कि ऐसा पहले भारत में भी हुआ है। जब देश की सुरक्षा संबंधित दस्तावेज नेता अपने घर ले जा चुके हैं।
स्वतंत्र भारत में एक प्रधानमंत्री ऐसे भी रहे हैं, जिन्होंने पद छोड़ते हुए कई सरकारी दस्तावेज अपने पास ही रख लिए थे। उन्होंने एक लेखक को वह डॉक्यूमेंट दिखाया और उसके आधार अपने बारे में एक किताबी लिखने को कहा। ऐसे प्रधानमंत्री थे, मोरारजी देसाई। जो कि 1977 से 1979 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे थे।
घटना सन् 1979 की है। जब प्रधानमंत्री पद छोड़ने के बाद देश की सुरक्षा से जुड़े जो सीक्रेट डॉक्यूमेंट अपने साथ लाए थे, उसमें कई कैबिनेट मंत्रियों, राजनयिकों और यहां तक कि राष्ट्रपति से हुई बातचीत तक के अंश शामिल थे। इन डॉक्यूमेंट में अमेरिका में भारतीय राजदूत की चिट्ठी भी शामिल थी। जिसमें रुसी ताकतों के जनता पार्टी की सरकार गिराने के इरादे का जिक्र था। उस समय जनता पार्टी के मुखिया अटल बिहारी वाजपेयी हुआ करते थे। यही नहीं, इन डाक्यूमेंट्स में प्रधानमंत्री के बेटे बिज़नेस इंटरेस्ट पर राष्ट्रपति की चिट्ठी भी शामिल थी।

वैसे तो UPA-2 सरकार के कार्यकाल में भी ये सरकारी फाइल्स के इधर-उधर होने के आरोप लगाते रहे हैं। इन आरोपों ने कहा गया था कि हर सरकारी फाइल 7 रेसकोर्स रोड, यानी PM के सरकारी आवास के बजाय 10 जनपथ यानी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास से होकर गुजरती है। हालांकि, इन आरोपों का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिले।
मोरारजी देसाई के सीक्रेट डॉक्यूमेंट का ज्यादातर ब्यौरा 1983 में छपी किताब ‘मोरारजी पेपर्स: फॉल ऑफ़ द जनता गवर्नमेंट’ में मिलता है।
मोरारजी देसाई स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही कांग्रेस से जुड़े नेता थे। आजादी के बाद केंद्र सरकार में वे गृहमंत्री और वित्तमंत्री भी रहे थे। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद उन्हें ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जाने लगा था। लेकिन इंदिरा के आगे उनकी एक न चली। इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनी और उन्हें डिप्टी प्राइम मिनिस्टर बनाया गया। इस घटना के बाद से मोरारजी देसाई के मन में इंदिरा गांधी के प्रति खटास उत्पन्न होने लगी थी। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ और वे इंदिरा गाँधी के विरोध में कांग्रेस (ओ) में शामिल हो गए। 1977 के चुनाव में कांग्रेस (ओ) ने सभी दलों के साथ मिलकर जनता दल के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। जनता पार्टी की जीत हुई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।

मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। हालांकि पार्टी के भीतर के कलह ने मोरार जी देसाई और जनता दल को कमजोर कर दिया। नतीजन 1979 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद इंदिरा गांधी के समर्थन से चौधरी चरण सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने। लेकिन ये भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाए। महज 24 हफ़्तों में यह भी सरकार गिर गई और चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
मोरारजी अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च सिविल अवार्ड निशान-ए-पाकिस्तान मिला था। उनके अलावा ये अवार्ड पाने वाले भारतीय सिर्फ सैयद हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी हैं।
मोरारजी देसाई के पास सरकारी चिट्ठियों का पूरा भंडार था। इसमें कैबिनेट मंत्रियों, भारतीय राजदूतों और राष्ट्रपति से हुए पत्राचार भी शामिल थे। उन्होंने इन चिट्ठियों को लेखक अरुण गाँधी को दिखाया था। मोरारजी चाहते थे कि अरुण इन्हीं चिट्ठियों के आधार पर उनकी जीवनी लिखें। वे चाहते थे कि लेखक अरुण गांधी (महात्मा गांधी के पोते) उनका चित्रण अपनी किताब में गांधीवादी नेता के तौर पर करें। जो कि इंदिरा गांधी की साजिशों का शिकार हुआ।

अरुण गांधी को जो डाक्यूमेंट्स मोरारजी ने दिखाए, उसकी पुष्टि वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी अपनी किताब ‘अ रुड लाइफ: ए मेम्योर’ में करते हैं। सांघवी के मुताबिक, मोरारजी द्वारा लाए गए डाक्यूमेंट्स को अरुण और मोरारजी दोनों साथ में बैठकर ही देखते थे।
महात्मा गांधी के पोते का मोरारजी विरोध
महात्मा गांधी के पोते अरुण गांधी ने अपनी किताब ‘मोरारजी पेपर्स: फॉल ऑफ़ द जनता गवर्नमेंट’ 1983 में पब्लिश की। उन्होंने इस किताब में मोरारजी के विरोध में लिखा। उन्होंने मोरारजी के महिमामंडन के बजाय पूरा फोकस उनके द्वारा लाए गए सीक्रेट फाइल्स पर रखा। नतीजन मोरारजी इस किताब से खुश नहीं हुए।
किताब में इन डाक्यूमेंट्स के जरिये दिखाया गया कि जनता पार्टी की सरकार में पार्टी के भीतर कलह बहुत ज्यादा थी। मंत्री आपस में झगड़ते रहते थे। यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक की विचारधाराओं में काफी अंतर था।
बेटे पर भी हावी रहे पिता पर लगे आरोप
मोरारजी देसाई पर लगा आरोप उनके बेटे पर भी हावी रहे। पिता पर लग रहे आरोप की हवा बेटे कांति देसाई को भी छू गई। जिस समय मोरारजी इंदिरा गांधी की सरकार में डिप्टी प्राइम मिनिस्टर थे, तब विपक्ष ने उनके बेटे कांति देसाई पर निशाना साधा था। विपक्ष ने उनपर आरोप लगाए थे कि वे अपने पिता की पहुंच का गलत फायदा उठाते हैं। उस समय संसद में इंदिरा गांधी ने कांति देसाई का बचाव किया था। उन्होंने कांति देसाई पर लग रहे आरोपों को ख़ारिज कर दिया था।
विपक्ष के विरोध की ज्वाला यहां भी शांत नहीं हुई। मोरारजी देसाई खुद प्रधानमंत्री बने, तब उनके बेटे को लेकर व्यासायिक हितों के प्रति कई सवाल उठे। जिस समय नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति थे, उस समय राष्ट्रपति भवन के एक कार्यक्रम में बुलाए जा रहे अतिथियों की लिस्ट में कांति देसाई ने उद्योगपति हिंदुजा ब्रदर्स का नाम जुडवाना चाहा। राष्ट्रपति ने मोरारजी देसाई को इस बाबत चिठ्ठी लिखकर अवगत कराया था और आपत्ति जताई थी। इस संबंध में मोरारजी देसाई ने कहा था कि उद्योगपतियों को राष्ट्रपति भवन में बुलाए जाने में कोई आपत्ति नहीं है।

लाल कृष्ण अडवाणी ने भी मोरारजी को उनके बेटे के प्रति कराया था अवगत
सरकार बदली। कांग्रेस की सरकार की बदली और जनता पार्टी की सरकार आई। इस सरकार में लाल कृष्ण आडवाणी इनफार्मेशन एंड ब्रॉडकास्ट मिनिस्टर थे। साथ ही वे सरकार के मुख्य प्रवक्ता भी थे। उन्होंने के लम्बी चिट्ठी लिखकर मोरारजी देसाई को उनके बेटे के प्रति उठ रहे विवादों के बारे में अवगत कराया था। उन्होंने यह भी जिक्र किया कि मोरारजी की सरकारी विदेश यात्राओं में उनका बेटा भी जाता है। इससे सरकार की छवि पर गहरा असर पड़ेगा।
मोरारजी ने अपने जवाब में उन सभी आरोपों को ख़ारिज किया। उन्होंने बताया कि उनका बेटा निजी तौर पर विदेश यात्राओं में साथ जाता है, इसमें कोई बुराई नहीं है। मोरारजी, अपने कांग्रेस के दिनों से ही कहते रहे हैं कि उनके बेटे कांति देसाई के व्यापारिक हित बहुत ही सीमित हैं। हालांकि मोरारजी के इस बयान पर राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने भी आपत्ति जताई थी। इस बाबत राष्ट्रपति ने लिखा, “आप कहते हैं कि आपके बेटे ने व्यापार छोड़ दिया था। लेकिन आपकी हाल की विदेश यात्रा के दौरान आपने तेहरान में रुकने की वजह के बारे में आपने कहा कि आपके बेटे को वहां उतरकर लंदन की फ्लाइट लेनी थी। उसे लंदन में व्यवसाय के सिलसिले में जाना था। आप ही स्पष्ट कीजिए कि क्या सही है।”
अरुण गांधी की किताब में उस समय अमेरिका में भारतीय राजदूत नानी पालकीवाला की एक चिट्ठी का भी जिक्र मिलता है। नानी पालकीवाला मोरारजी के बेहद करीबी माने जाते हैं। मोरारजी देसाई को लिखी चिट्ठी में नानी ने कहा था, ‘अमेरिकी इंटेलिजेंस ने मुझे बताया कि सोवियत यूनियन पूरी ताकत लगाकर आपकी (देसाई की) सरकार गिराना चाहती है।’

चिठ्ठी लिखने के कुछ ही समय बाद मोरारजी और उनकी सरकार में डिप्टी प्राइम मिनिस्टर चौधरी चरण सिंह के बीच खटास की खबरें आने लगी थीं। इस घटना के बाद से यह स्पष्ट हो गया था कि चौधरी चरण सिंह को इंदिरा गांधी का समर्थन है। लिहाजा, मोरारजी देसाई को अपने पदसे इस्तीफा देना पड़ा।
मोरारजी देसाई एक मंझे हुए राजनेता थे। माना जाता है कि उनके रिश्ते हर पार्टी के नेताओं से अच्छे रहे थे। 1983 में जब अरुण गांधी की किता पब्लिश हुई, उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी और वे ही प्रधानमंत्री थीं। इस किताब में दिए गए दस्तावेजों के सार्वजनिक होने के बाद भी उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। न ही दस्तावेज अपने साथ ले जाने पर किसी तरह की कोई अधिकारिक जांच हुई। जबकि ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत मोरारजी देसाई पर सरकार कार्रवाई कर सकती थी।
ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट क्या है?
औपनिवेशिक शासन में गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिये सामान्यतः राष्ट्रीय सुरक्षा और जासूसी के मुद्दों पर अधिकारियों द्वारा सूचना को गोपनीय रखने के लिये यह कानून लाया गया था। मूल रूप से यह इंडियन ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, 1889 के रूप में जाना जाता था। वायसराय लॉर्ड कर्ज़न के कार्यकाल के दौरान इस अधिनियम में संशोधन किया गया और इसे द इंडियन ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, 1904 के रूप में और अधिक कठोर बनाया गया। 1923 नाम दिया गया और देश में शासन में गोपनीयता बरतने लायक सभी मामलों को इसके तहत लाया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी यह कानून बरकरार रहा।
- यह अधिनियम मुख्य रूप से कई भाषाओं में छपने वाले अखबारों की आवाज़ को दबाने के लिये बनाया गया था, जो ब्रिटिश राज की नीतियों का विरोध कर देश में राजनीतिक चेतना जाग्रत कर रहे थे और पुलिस की कार्रवाई का उन पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता था।
- सरकारी कर्मचारियों और नागरिकों के लिये लागू यह कानून, राष्ट्र की अखंडता सुनिश्चित करने तथा जासूसी, राजद्रोह और अन्य संभावित खतरों से निपटने हेतु रूपरेखा प्रदान करता है।
- यह कानून जासूसी, साझा ‘गुप्त’ जानकारी, वर्दी का अनधिकृत उपयोग, जानकारी रोकना, निषिद्ध/ प्रतिबंधित क्षेत्रों में सशस्त्र बलों के कार्यों में हस्तक्षेप को दंडनीय अपराध बनाता है।
- अपने वर्तमान स्वरूप में यह अधिनियम दो पहलुओं से संबंधित है- जासूसी या गुप्तचरी और सरकार की गोपनीय जानकारी का खुलासा। यह गोपनीय जानकारी आधिकारिक कोड, पासवर्ड, स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज़ या किसी अन्य प्रकार की हो सकती है। अधिनियम के तहत सूचना को संप्रेषित करने वाले व्यक्ति और सूचना प्राप्त करने वाले दोनों को दंडित किया जा सकता है।
इस कानून की प्रमुख धाराएँ
इस अधिनियम की विभिन्न धाराओं में महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं तथा अन्य प्रावधानों का उल्लेख है। इसकी धारा 3 में जासूसी या गुप्तचरी से संबंधित निषेधात्मक कार्यों के बारे में बताया गया है। इसके तहत देश की सुरक्षा तथा राष्ट्रहित के विरुद्ध कार्य के उद्देश्य से निम्नलिखित को दंडनीय माना गया है:
- किसी निषिद्ध स्थान में प्रवेश करना, उसके निकट जाना, उसका निरीक्षण करना, उसका ऐसा रेखाचित्र, प्लान, मॉडल या नोट बनाना जो शत्रु के लिये उपयोगी हो सकता है।
- ऐसी कोई सूचना प्रकाशित करना या किसी व्यक्ति को संकेत, कूटभाषा, मॉडल, प्लान, नोट, लेख अथवा दस्तावेज़ के माध्यम से ऐसी सूचना देना जो किसी रूप में शत्रु के लिये उपयोगी हो सकती है।
- ऐसी कोई भी जानकारी/सूचना जिसके प्रकटीकरण से देश की सार्वभौमिकता व एकता, सुरक्षा अथवा अन्य राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
- इस अधिनियम की धारा 5 में उन जानकारियों का उल्लेख है जिन्हें सरकार गुप्त मानती है। आपको बता दें कि यह धारा सीधे तौर पर प्रेस के विरुद्ध नहीं है, लेकिन प्रेस इससे बहुत ज़्यादा प्रभावित होती है। इसका दायरा बहुत व्यापक होने के कारण सरकार को विभिन्न मामलों में इसका उपयोग करने का अधिकार है।
- यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकार क्षेत्र की जानकारी का किसी विदेशी के लाभ के लिये उपयोग करे, देश की सुरक्षा के खिलाफ प्रयोग करे, ऐसे रेखाचित्र, लेख, दस्तावेज़, मॉडल आदि अपने पास रखे जिन्हें रखने का वह अधिकारी न हो अथवा अपने अधिकार क्षेत्र के ऐसे दस्तावेज़ों की सावधानीपूर्वक रक्षा न करे जिससे उनके शत्रु के हाथ में पड़ जाने का खतरा हो तो उसे सज़ा हो सकती है।