काशी। रामचरितमानस के ४५० वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में सोमवार को नवीन भवन , हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम में भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के निदेशक, संस्कृति समीक्षक, वागर्थ पत्रिका के संपादक प्रो. शंभुनाथ ने अपने कहा कि हिंदी के दिग्गजों की नगरी में सम्मान पाकर मैं कृतज्ञ हूं।

मानस के ४५० वर्ष पूर्ण होने पर लेखक शिवप्रसाद सिंह ने धर्मयुग में एक लेख लिखा था कि मानस के ४५० वर्ष पूर्ण होने पर वैश्विक स्तर पर एक आयोजन होना चाहिए। तब मैंने १९७३ में कबीर मेला का आयोजन किया था उस समय मैं तुलसी का बड़ा निंदक था। लेकिन बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि जब तक पांचों अंगुलियां एक साथ न हों, मुट्ठी नहीं बंधेंगी, इससे हमारे विचारों में शक्ति नहीं रह जायेगी। यदि हम अपने भक्त कवियों की व्याख्या वकील बनकर करेंगे तब जिसका मुकद्दमा हमारे हाथ में होगा, उसके पक्ष से बोलेंगे। रामचरितमानस के चार सोपान हैं। इसमें एक सोपान में अध्यात्म को श्रेय देने वाले याज्ञवल्क्य भौतिक विषयों के ज्ञाता भारद्वाज से कथा कह रहे हैं। चाहते तो मैत्रेई से भी कह सकते थे । दूसरे सोपान में कागभुसुंडी जो कौवा है जिसे पक्षियों में निकृष्ट माना जाता है हाशिए का प्रतीक है जो पक्षियों के राजा गरुण से जो केंद्र में है ,कथा कह रहा है। एक घाट पर शिव पार्वती को कथा सुना रहे हैं ; जो अचेतन अवस्था में हैं। और चौथे सोपान पर तुलसी स्वयं लोकभाषा में बोल रहे हैं। यहां एक साधारण बोल रहा है। तुलसी इस दुनिया में उस दुनिया के स्वप्न रच रहे थे। यहां बुद्धिपरक सहृदयता है जिसे आप भविष्य कल्पना भी कह सकते हैं। सहृदयता में बुद्धिपरकता को शामिल करने पर पाप बुराई के रूप में दिखाई देगा।
सहायक आचार्या डॉ.प्रीति त्रिपाठी के संयोजन में इस विशेष व्याख्यान का आयोजन किया गया। विषय था : रामचरितमानस का महत्व। डॉ . प्रीति त्रिपाठी ने कहा कि काशी महान लेखकों , साहित्यकारों की तीर्थस्थली है ।आलोचना समर्थ की हो सकती है, असमर्थ की नहीं हो सकती। रामचरितमानस को पढ़ना जीवन को पुनः पुनः गढ़ना है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. सदानंद साही ने कहा कि प्रो .शंभुनाथ चाहे जिस भूमिका में हों, समभाव रहते हैं। इनकी सहजता का संबध हमें संतों की सहजता से जोड़ना चाहिए। शंभुनाथ जी का सम्मान एक संत आलोचक का सम्मान है । किसी भी विद्वान का सम्मान उसके विचारों का सम्मान है। इसी काशी में जब रामचरितमानस लिखा गया तब घनघोर विरोध हुआ था।
तुलसी काशी में बार बार इसलिए आते थे ताकि काशी में व्याप्त धर्म के आडंबर के विरुद्ध धर्म की अपनी परिभाषा को गढ़ सकें। बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं , पिसुन पराय पाप कहि देही । कपटी कुटिल कलह प्रिय क्रोधी, बेद बिदूषक विस्व विरोधी। कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं; तुलसी हमारे जातीय कवि हैं। तुलसीदास की शब्दों की दुनियां बड़ी है।
विशिष्ट वक्ता प्रो अवधेश प्रधान ने बताया कि प्रो.शंभुनाथ ने कहा था कि संतों का चिंतन वैश्विक था, कर्म स्थानीय वैश्विक। इस ध्येय वाक्य को शंभुनाथ जी ने अपने जीवन में चरितार्थ करके दिखाया है।इनका व्यक्तित्व , लेखन और उपलब्धि कलकत्ता विभाग के प्रोफेसर तक ही सीमित नहीं है। वे हिंदी जाति के ,समाज के क्रांतिकारी भौतिक हस्तक्षेप के व्यक्तित्व के रूप में जाने जाते हैं। प्रो शंभुनाथ ने 1988 में समकालीन सृजन विशेषांक का अनोखा संपदान किया था जिसका शीर्षक था 1947 का भारत। इतनी आगे देखने वाली दृष्टि ! राममनोहर लोहिया ने भविष्य में वापसी का नारा दिया था। इसका तात्पर्य वर्तमान और अतीत का निषेध नहीं है बल्कि हमें इन यथार्थ की सीमाओं में बंदी नहीं होना चाहिए। बंदी होने से भविष्य के सपने मर जाते हैं। शंभुनाथ जी ने हिंदी नवजागरण के विरोधों को इस तरह देखा कि भारतेंदु के बरक्स शिवप्रसाद सितारेहिंद को खड़ा किया।हरिश्चंद्र , महावीर प्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेमचंद , जयशंकर प्रसाद ,नागार्जुन,शमशेर पर लिखने के पश्चात अपनी प्रत्यंचा को पीछे की ओर खींचते हुए भक्ति आंदोलन पर लिखा। इसका संबंध सम्पूर्ण भारत में होने वाले नवजागरण से संबंधित है। भारतीय नवजागरण साम्राज्यवाद के विरोध में एक आवाज बनता है। भारतीय नवजागरण के हर क्षेत्र की अपनी एक खूबसूरत विशेषता रही है। इन्होंने भक्ति आंदोलन को पूरे भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखा । भक्तिकाल आंतरिक समावेशी है।इसको समझने के लिए आलोचनात्मक समावेशी होना जरूरी है।
डा. शंभुनाथ ने कहा कि कबीर कहते हैं कि मोरा हीरा हेराय गयो कचरे में। आज भक्ति साहित्य का सार खो गया है । यह खो जाना भारतवासियों के सांस्कृतिक उन्मूलन का प्रतीक है। वह तो बाजार के अमेरिकन डायमंड कंपनी में खो गया है। यह भारत के सेल्फ के पुनः आविष्कार का मामला है। राम और रावण युद्ध में खड़े हैं , विभीषण कहता है ; रावण रथी विरथ रघुबीरा। जब राम जवाब देते हैं उसमें रामचरितमानस का निचोड़ है, मैं जिस रथ पर सवार हूं उसमें सत्य और शील दो पताकाएं हैं । चार घोड़े के रूप में आत्मबल , इंद्रिय नियंत्रण , परोपकार आदि हैं। मेरी बुद्धि ही तीक्ष्ण बरछी है। दान ही फसल है।गुरु की जो कृपा है वही कवच है। मैं जिस रथ पर सवार हूं उस पर किसी और चीज की आवश्यकता नहीं है । यदि ये रूपक हाथ से गए तो समझ लीजिए राम भी गए। यह धर्म युद्ध मूल्यों की लड़ाई है। भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसी कोउ न स्वतंत्र।
यह लड़ाई स्वतंत्रता के लिए है। भूमंडलीकरण के अविद्या का उद्देश्य अंदर की सजगता को सुला देना है। लीला का मतलब माया चक्र को नष्ट कर देना है। रावण को मारना भी राम की लीला है। अध्यात्म के कई तरह की जेरॉक्स कॉपियां हैं । ख़ास तौर से दो तरह के अध्यात्म को समझने की जरूरत है। एक कॉरपोरेट अध्यात्म और दूसरा लोक अध्यात्म । कॉरपोरेट अध्यात्म सुख- शांति तो प्रदान करता है लेकिन मूल्यों को ध्वस्त कर देता है। कॉरपोरेट का अध्यात्म वैल्यू न्यूट्रल है जबकि लोक का अध्यात्म वैल्यू ओरिएंटेड है ; जिस पर हमारा लोक टीका है। दीर्घकाल से सनातनता और सृजनात्मकता में द्वंद्व चला आ रहा है। सनातन चाहता है कि जो दीर्घ काल से चला आ रहा है वही चलता रहे जबकि दार्शनिक युक्तियां सनातनता में पुनर्नवता चाहती हैं। रामचरितमानस के समय की धार्मिक व्यवस्था तुलसी को नहीं पचा पा रही थी यदि पचा ली होती तो आज तुलसी कालकवलित हो चुके होते।उन्होने कहा, तुलसी कहते हैं; कर्म प्रधान बिस्व रची राखा, जो जस करही सो तस फल चाखा। भारत के लोगों पर जितना अतीत का बोझ है उतना दुनियां के किसी भी देश पर नहीं। जिस अतीत में रूढ़ियां हैं , जंजीरें हैं उसी अतीत में उसके टूटने की आवाज भी है । टूट नहीं रही है तो चरमरा जरूर रही है। पूरा का पूरा भक्ति साहित्य वैदिक परंपरा एवं श्रवण परंपरा का क्रिटिकल सिंथेसिस है। रामचरितमानस को बुद्धिपरक सहृदयता और सहृदयपरक बुद्धिपरकता वाले ही आत्मसात कर सकते हैं।संगोष्ठी के अंत में डॉ प्रभात कुमार मिश्र ने तुलसी का एक दोहा उद्धृत करते हुए ,गुरु गृह गए पढ़न रघुराई । अल्पकाल सब विद्या आई, धन्यवाद ज्ञापित किया।
जो अनीति कछु भाषौं भाई, तों मोहि बरजहु भय बिसराई
शंभुनाथ जी ने अपने काशी के अनुभव शेयर किये, बनारस के तुलसी घाट पर मंगल के सूर्योदय के पहले! सुबहे बनारस कितना सुंदर नाम है गंगा-जमुनी संस्कृति को समेटे हुए! यहां अनुभव किया, तुलसी यहीं की मिट्टी में टहलते होंगे और उनके पैरों की छाप यहां की मिट्टी के बहुत-बहुत नीचे सांस ले रही है! धर्म की नगरी काशी में वे मंदिरों की जगह इसी मिट्टी से कुछ बोल रहे थे और अपनी यह पीड़ा व्यक्त कर रहे थे- पंडित सोई जो गाल बजावा! यहीं से उन्होंने राम को यह कहते सुना- जो अनीति कछु भाषौं भाई, तों मोहि बरजहु भय बिसराई। राजा राम अयोध्या के नागरिकों को बुलाकर कह रहे हैं, नागरिको! यदि मैं कुछ भी अनीतिपूर्ण और अन्याय करता हूं तो निर्भय होकर मुझे मना करो ! आज दुनिया का कौन सत्ताधारी या जरा भी जो सत्तावान है, ऐसा कौन व्यक्ति इस तरह सोचता है!

बनारस की मिट्टी की यह आवाज ही भारत की आवाज है– निर्भय बोलो!प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल जी और प्रो.विंध्याचल यादव और इनके विद्यार्थियों के साथ इस घाट से गंगा का प्रवाह देखा। यह भी देखा कि आरती से अनासक्त सैकड़ों लोग गंगा में नहा रहे हैं और निश्छल आनंद ले रहे हैं! क्या इन लोगों को छोड़कर किसी विचार, किसी साहित्य का अर्थ है? हमें उनके मानस को छूने की राहें खोजनी होंगी, उनकी आस्था को चिढ़ाकर नहीं, उनसे आत्मीय आलोचनात्मक संबंध स्थापित करके!
आग्रह पर मैंने घाट पर सुबहे बनारस के कलाकारों के बीच कहा — जहां कला होगी, वहां कट्टरता नहीं हो सकती और जहां कट्टरता होगी, वहां कला नहीं हो सकती!
शंभुनाथ जी की मौजूदगी में सुबहे बनारस के मंच से कलाकारों को भी सम्मानित किया गया।संचालन प्रितेशआचार्य ने किया। स्वागत संस्थापक डॉ. रत्नेश वर्मा ने किया। सूत्रधार के रूप में आलोचक शंभुनाथ जी का परिचय प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल ने दिया। अवसर पर कृष्णमोहन पांडेय के साथ भारी संख्या में लोग उपस्थित रहे। शंभुनाथ जी ने कहा, जहाँ कला होगी वहाँ कट्टरता नहीं हो सकती और जहाँ कट्टरता होगी वहाँ कला नहीं होगी। डॉ. विंध्याचल यादव ने कहा कि संस्कृति और प्रकृति के मेल का नाम है सुबह-ए-बनारस।
पुलिया प्रसंग के साथियो द्वारा मंगलवार की सुबह बीएचयू की संबुद्ध पुलिया पर 75 पार आदरणीय शंभुनाथ जी को सम्मानित किया गया ।इस अवसर पर उन्होंने ऐसे मुक्ताकाशी मंच की उपस्थिति को सामाजिकता के विस्तार के लिए आवश्यक माना और कहा कि गड्ढा खोदने की जगह पुल बनाया जाना आज कहीं अधिक जरूरी है।पुलिया प्रसंग इस दिशा में एक जरुरी हस्तक्षेप है।यह किसी भी बद्ध परिसर का अतिक्रमण है और उसका विस्तार भी।इस अवसर पर उनके सम्मान में भौतिकी विभाग ,बीएचयू के प्रो देवेंद्र मिश्र, युवा आलोचक विंध्याचल यादव व कवि अमरजीत राम ने भी अपनी बात रखी। शंभुनाथ जी शतायु हों।हमारी यही कामना है।