- संस्कृत विश्वविद्यालय में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने की थी प्राण प्रतिष्ठा
- मंदिर में काले पत्थर की सरस्वती की प्रतिमा के अलावा द्वादश सरस्वती भी हैं
- 1998 में शंकराचार्य ने इस मंदिर को विश्वविद्यालय को सौंपा
राधेश्याम कमल
मंदिरों के शहर काशी का अपना विशिष्ट स्थान माना जाता है। काशी ज्ञान, विद्या की नगरी के साथ ही मंदिरों के नाम से भी जानी जाती है। यहां पर सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में वाग्देवी का एक ऐसा मंदिर है जो उत्तर भारत में इकलौता मंदिर है। वाग्देवी को विद्या व बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। परमार शैली में निर्मित वाग्देवी का यह मंदिर अपने आप में अनूठा है। मंदिर के गर्भगृह में काले पत्थर की मां वाग्देवी की मूर्ति प्रतिष्ठापित है। यहां पर रोज प्रात:काल व सायंकाल आरती व पूजन होता है। सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के दक्षिणी गेट से प्रवेश करते ही वाग्देवी का अनूठा मंदिर स्थापित है। इसकी स्थापत्य कला बेजोड़ है जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
मंदिर के पुजारी सच्चिदानंद पांडेय बताते है कि वसंत पंचमी पर यहां विशेष पूजा-अर्चना की जाती है जो सुबह से लेकर शाम तक चलती रहती है। वसंत पंचमी पर यहां कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी की अध्यक्षता व प्रो. महेन्द्र पांडेय के संयोजन में प्रात:काल ग्यारह बजे से गणेश अंबिका पूजन व वरुण देवता पूजन तथा कलश स्थापन के साथ ही पंचांग पूजन सम्पन्न होगा। इसमें सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. हरेराम त्रिपाठी, प्रो. महेन्द्र पांडेय, प्रो. जितेन्द्र शाही, प्रो. रामपूजन पांडेय, छात्र कल्याण संकाय अध्यक्ष हरिशंकर पांडेय, प्रो. दिनेश गर्ग, प्रो. विजय शंकर पांडेय व प्रो. रमेश प्रसाद समेत समस्त अध्यापक व छात्र-छात्राएं शामिल होंगे।

मंदिर की स्थापना
वाग्देवी मंदिर के प्रभारी व सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वेद विभाग के प्रो. महेन्द्र पांडेय ने बताया कि 8 अप्रैल 1988 में इस मंदिर के निर्माण को लेकर मोहर लगी। जिसको लेकर प्रति कुलाधिपति व पूर्व काशीनरेश डॉ विभूति नारायण सिंह एवं पूर्व कुलपति वेंकटाचलम ने इसकी संकल्पना की। जिसके बाद पूर्व कुलपति प्रो मंडन मिश्र के समय बनकर यह बन कर तैयार हो गया। इसका शुभारंभ 18 फरवरी 1989 हुआ। 27 मई 1998 को वाग्देवी मंदिर बनकर तैयार हो गया और इसका उद्घाटन हुआ। उसी वक्त विश्वविद्यालय को मंदिर का दायित्व सौंप दिया गया। उस वक्त उत्तर प्रदेश के तत्कालीन निर्माण और पर्यटन मंत्री कलराज मिश्र और कांचीकाम कोटि पीठ के शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती और तत्कालीन कुलपति मंडल मिश्र मौजूद थे। ऐसा ही मंदिर मध्य प्रदेश के धार क्षेत्र में राजा भोज के समय स्थापित थी लेकिन खंडित हो जाने के बाद संम्पूर्णानंद संस्कृत विस्वविद्यालय में पूर्व कुलपति वेंकटचलम के प्रयास से इसकी संकल्पना हुई।
द्वादश सरस्वती के भी हैं विग्रह
इस मंदिर में द्वादश सरस्वती के विग्रह हैं जो अपने आप में उत्तर भारत में कहीं अन्य नहीं है। इन द्वादश विग्रहों के अलग-अलग नाम भी हैं। इनमें भारती देवी, सुमंगला देवी, विद्याधरी देवी, तुम्बरी देवी, सारंगी देवी, विजया देवी, जया देवी, सरस्वती देवी, कमलाक्षी देवी, शारदा देवी, श्रीदेवी हैं।





शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती के आग्रह पर बना मंदिर: वीएस सुब्रमण्यम मणि
कांचीकाम कोटि हनुमानघाट के प्रबंधक बीएस सुब्रमण्यम मणिजी बताते हैं कि कांचीकाम कोटि पीठ के शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी जयेन्द्र सरस्वती एवं शंकराचार्य शंकर विजेन्द्र सरस्वती महराज नेपाल यात्रा करके काशी पधारे थे। उस समय सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में उनका स्वागत व अभिनंदन हुआ था। उसकी अध्यक्षता पूर्व काशीनरेश डा. विभूति नारायण सिंह कर रहे थे। शंकराचार्य ने उस समय सभा में कहा कि यहां ऐसा स्थान होना चाहिए जहां सरस्वती का सानिध्य हो। उन्होंने पूर्व काशीनरेश से आग्रह किया यदि यहां वाग्देवी का मंदिर बन जाय तो बहुत अच्छा होगा। इस पर 1998 में इस मंदिर का लोकार्पण हुआ। इस मंदिर के समक्ष महामंडप है जिसे सरस्वती कंठाभरण कहा जाता है। मंदिर में वाग्देवी के अलावा आदिशंकराचार्य, शंकराचार्य की भी तस्वीरें लगी हुई हैं। इस मंदिर के निर्माण पर उस समय 60 लाख का खर्च आया था।
