पुरखों की विरासत संजोने को गांव स्तर पर जागरूकता जरूरी : डॉ. सुभाष चंद्र यादव
- भारत सरकार और उत्तर प्रदेश का पुरातत्व विभाग समेत तमाम कर रहे शोध
- काशी का प्राचीनतम एकमात्र जीवंत पूजित देवालय है कर्दमेश्वर महादेव मंदिर
- विंध्य क्षेत्र में डेढ़ लाख वर्ष पहले से लेकर अबतक मानव आवास के हैं साक्ष्य
सुरोजीत चैटर्जी
वाराणसी। एक मुहल्ला बसाने के दौरान जहां सारनाथ के महत्व का पता चला वहीं रेल पटरी बिछाते समय जानकारी हुई कि ये तो काशी महाजनपद या काशी राज्य की राजधानी वाराणसी है। दूसरी ओर, पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि विंध्य क्षेत्र में लगभग डेढ़ लाख वर्ष पूर्व से लेकर अब तक मनुष्य के निरंतर आवास के प्रमाण हैं। सरकार ऐसे ही तमाम पुरातत्व महत्व के स्थलों को संरक्षित कर रही है लेकिन सभी संबंधित स्थलों का संरक्षण मात्र शासन स्तर से संभव नहीं है। इसके लिए जनजागरूकता की आवश्यकता है। विशेषकर ग्रामीण इलाकों में स्थित पुरावशेषों या पुरातत्व महत्व के स्थलों को संरक्षित करने के लिए ग्राम समितियों को भी आगे आना होगा।
‘जनसंदेश टाइम्स’ ने जब अपने विशेष कॉलम ‘खास मुलाकात’ के दौरान क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी डॉ. सुभाष चंद्र यादव ने बनारस की प्राचीनता को लेकर बातचीत की तो उन्होंने यह बात कही। वो बताते हैं कि 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक सन 1794 में जब तत्कालीन काशी नरेश के दीवान जगत सिंह ने जगतगंज मुहल्ला बसाने के लिए सारनाथ क्षेत्र में इधर-उधर बिखरे पड़े पत्थरों समेत वहां जमीन खोदकर पत्थर निकलवाकर मंगवा रहे थे। उसी क्रम में पत्थर हासिल करने के लिअ सारनाथ के धर्मराजिका स्तूप के निकट की गई खोदाई में कुछ ऐसे अवशेष मिले जिन्हें जगत सिंह ने गंगा में प्रवाहित करा दिया। इस बात की जानकारी उस वक्त के कलेक्टर जोनाथन डंकन की मिली।
उन्होंने मामले की गंभीरता का अनुमान लगाते हुए सारनाथ क्षेत्र की वह खोदाई तत्काल रुकवा दी और पुरातत्व विशेषज्ञों के जरिये वहां पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त करने के उद्देश्य से उत्खनन आरंभ कराया। उसी उत्खनन के कारण आधुनिक भारत को सारनाथ और भगवान बुद्ध की प्रथम तपोस्थली की जानकारी मिली। जोनाथन डंकन की इस अत्यंत महत्वपूर्ण पहल के बाद तो सिलसिला चल पड़ा। उसी क्रम में 1934 में एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने सारनाथ का सर्वेक्षण शुरु कराया। ब्रिटिश और भारतीय विशेषज्ञों ने सारनाथ के विभिन्न स्थलों का उत्खनन आदि कराते हुए और भी तमाम महत्वपूर्ण जानकारियां आमलोगों के सामने लाने में सफल रहे।
बढ़ती आबादी और अज्ञानता एक बड़ी चुनौती
देश में असंख्य पुरातात्विक संपदा और विरासत विभिन्न स्वरूपों में स्थित हैं। अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थलों का संरक्षण सरकार करती है लेकिन गांवों में स्थित ऐसे स्थलों को संरक्षित करने के लिए ग्रामीणों का जागरूक करना आवश्यक है। बढ़ती आबादी और अज्ञानता के चलते ऐसे स्थलों पर अतिक्रमण की समस्या एक बड़ी चुनौती के रूप में है। वास्तव में वर्तमान समय में पर्यटन व्यापक क्षेत्र बन चुका है। इस दृष्टि से भी पुरातात्विक महत्व के अज्ञात और कम प्रचारित स्थलों की ओर आमलोगों का ध्यान आकृष्ट कर जागरूकता बढ़ानी होगी। ग्राम समितियों के जरिये यह कार्य बेहतर ढंग से संभव है। यदि हम इन इन विरासतों को नहीं बचा सके को अपने अत्यंत महत्वपूर्ण इतिहास को भुला देंगे।

काशी राज्य की राजधानी का यूं चला पता
डॉ. यादव के मुताबिक सन 1939 में राजघाट क्षेत्र में रेलवे लाइन बिछाने के लिए की जा रही खोदाई के दौरान वहां कुछ पुरातात्विक अवशेष मिले। यह सूचना रेलवे के अधिकारियों ने नई दिल्ली स्थित भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अफसरों को दी। उसके बाद सन 1940 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कृष्णदेव ने राजघाट इलाके का सर्वे करने के लिए पुरातातत्विक उत्खनन आरंभ कराया। फलस्वरूप वहां प्राप्त अवशेषों और सामग्री के खुलासा हुआ कि काशी महाजनपद या काशी राज्य की राजधानी वाराणसी का क्षेत्र यही है। इसी क्रम में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संबंधित विभागों ने राजघाट इलाके में सन 1957-58, 1960 से 1965 तक और सामने घाट स्थित ज्ञान प्रवाह की ओर से 2013-14 में उत्खनन कराया गया। ऐसे ही कई अन्य प्रयासों के परिणाम स्वरूप राजघाट का पूरा स्वरूप उभरकर सामने आया।

मालवीय पुल पहले था डफरिन ब्रिज
राजघाट में गंगा पर बने वर्तमान पुल का नाम पहले ‘दि डफरिन ब्रिज’ था। इसे अवध एवं रुहेलखंड रेलवे कंपनी के इंजीनियरों ने बनाया था। उस वक्त यह पुल सिर्फ पैदल या वाहनों की आवाजाही के लिए था। जनवरी 1882 में इसका निर्माण आरंभ हुआ था। आम जनता के लिए यह पुल एक अक्टूबर 1887 को खोला गया। मूलत: सिंगल ट्रैक (इकहरी रेल लाइन) के लिए बने इस ब्रिज पर सड़क यातायात का प्रावधान था। पुल की रिगर्डरिंग का काम ब्रेथव्हाइट बर्म व जेसप कंस्ट्रक्शन कंपनी ने और डिजाइन रेंडल पामर व ट्रिटॉन ने किया। उसके बाद पांच दिसंबर पांच दिसंबर 1947 को पं. गोविंद बल्लभ पंत की मुख्य उपस्थिति में इस ब्रिज का नाम बदलकर ‘मालवीय ब्रिज’ कर दिया गया।

काशी के चार हजार साल पुराने साक्ष्य हैं उपलब्ध
क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी डॉ. सुभाष चंद्र यादव कहते हैं कि जगह या स्थान विशेष की ऐतिहासिकता की जानकारी हासिल करने के लिए वहां उत्खनन कर उसका मूल्यांकन करने के बाद ही पुष्ट हो पाता है कि उस जगह का महत्व क्या है। वाराणसी में कराए गये इतने उत्खनन में प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य लगभग चार हजार साल पुराने हैं। केंद्र और राज्य सरकार समेत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पुरातत्व से जुड़े विभागों के व्यापक प्रयासों से प्राप्त पुरावशेषों का सर्वेक्षण और अभिलेखीकरण लगातार जारी है। इन शोधों के फलस्वरूप अबतक वाराणसी एवं विंध्याचल मंडल में लगभग 300 शैल चित्र और करीब एक हजार पुरातात्विक स्थल प्रकाश में आ चुके हैं।

सारनाथ में कब-कब हुआ सर्वेक्षण
1794, 1815, 1834-1835, 1851-1852, 1865, 1904-1905, 1906-1907, 1914-1915, 1921-1922, 1927-1928, 1963-1964, 1992-1993, 2013-2014
जनपद में किया सर्वे
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संबंधित विभिन्न विभाग, सामनेघाट क्षेत्र स्थित ज्ञानप्रवाह, इनटैक समेत विभिन्न शोधार्थी

जिले के अन्य क्षेत्रों में हुआ उत्खनन
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की प्रो, विदुला जायसवाल ने कोटवां, आशापुर, तिलमापुर, अकथा, रामनगर, शूलटंकेश्वर, सरस्वती फाटक स्थित सरस्वती उद्यान का उत्खनन पुरातत्व महत्व के उद्देश्य से कराया था।

पूर्वांचल के अन्य जिलों में उत्खनन
वाराणसी के आसपास के जनपदों में भी पुरातत्व महत्व के उत्खनन कार्य कराए गये हैं। जिसके तहत मीरजापुर में अगियाबीर एवं बड़गांव, सोनभद्र में राजा नल का टीला, नई डीह, भगवास, रैपुरा, चंदौली जिले में मलहर, लतीफशाह, गाजीपुर में मसोनडीह और जौनपुर में हरिहरपुर आदि समेत विभिन्न स्थलों पुरास्थलों की खोदाई हुई है।
लोगों को कर रहे जागरूक
- उत्तर प्रदेश संस्कृति विभाग ट्वीट के जरिये सांस्कृतिक विरासतों की जानकारी दे रहा है।
- भारत सरकार के स्तर से भी कई प्रकार से लोगों को जागरूक कर रहे हैं।
- पर्यटन विभाग विभिन्न फोल्डर और ब्रोशर के माध्यम से जानकारी दे रहा है।
- स्मारकों के भ्रमण के लिए विभागीय वेबसाइट और विभिन्न पोर्टल के जरिये जानकारी दी जा रही है।
- स्कूल-कॉलेजों में व्याख्यान, प्रदर्शनी, पेंटिंग-निबंध प्रतियोगिता आदि कराते हैं।
कई विभागों की है जिम्मेदारी
उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग के क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी डॉ. सुभाष चंद्र यादव ने उत्तर भारत के बौद्ध स्थलों के उत्खनित अवशेषों पर आधारित विषय लेकर पीएचडी की है। वह पहली बार सन 2007 में सहायक पुरातत्व अधिकारी के तौर पर लखनऊ में तैनात हुए। इनका कार्यक्षेत्र वाराणसी मंडल के वाराणसी, चंदौली, गाजीपुर एवं जौनपुर सहित विंध्याचल मंडल कके संत रविदास नगर भदोही, मीरजापुर एवं सोनभद्र और अयोध्या मंडल के सुल्तानपुर तथा अमेठी है। कभी-कभी आजमगढ़ मंडल के मऊ एवं आजमगढ़ जिले को भी विभागीय कार्य संभालते हैं। उनके पास क्षेत्रीय सांस्कृति केंद्र, क्षेत्रीय अभिलेखागार, लालबहादुर शास्त्री स्मृति भवन संग्रहालय रामनगर का अतिरिक्त प्रभार भी है।