आजकल कुछ लोग धर्म का विरोध करते है तथा स्वयं को नास्तिक कहते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि सनातन संस्कृति को सबसे प्राचीन धर्म तथा मानवता का प्रतीक क्यों समझा जाता हैं ? हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार धर्म तथा अधर्म की व्याख्या क्या हैं तथा क्यों हिंदू धर्म विश्व के सभी धर्म के लोगों, नास्तिकों, जीवों, पेड़ पौधों, प्रकृति को अपनाने की बात करता हैं ? आज हम आपको इसी के बारे में बताएँगे ताकि आप धर्म तथा अधर्म के बीच में भेद समझ सके तथा धर्म की इस विश्व को कितनी आवश्यकता है, इसका औचित्य भी जान सके।
मत्स्य न्याय की व्याख्या
धर्म की व्याख्या को जानने से पहले हमारा मत्स्य न्याय को जानना आवश्यक हैं जिसे प्राकृतिक न्याय या जंगल का न्याय भी कहा जाता है। मत्स्य न्याय के अनुसार एक बड़ी मछली छोटी मछली को अपना आहार बनती है तथा अपना भरण-पोषण करती है। ठीक उसी प्रकार हमारी पृथ्वी पर भी यही नियम प्राकृतिक रूप से लागू होता है।
हमारी पृथ्वी में सब कुछ वनों से ही शुरू हुआ था व उसका अंत भी उसी में ही होगा। इस वन रुपी जीवन में कोई नियम, कानून, व्यवस्था नही होते तथा वहां सब कुछ अनियंत्रित होता है। इसमें एक सशक्त, स्वस्थ तथा होशियार प्राणी ही अपने भोजन तक पहुँच सकता है तथा उसे खाकर जीवित रह सकता हैं किंतु दूसरी ओर एक निर्बल, असहाय तथा कमजोर प्राणी भोजन के अभाव में या तो स्वयं मर जाता है या किसी शक्तिशाली प्राणी का आहार बन जाता है।
हिंदू वेदों तथा शास्त्रों में इसे ही मत्स्य न्याय कहा गया है जिसमे शक्तिशाली जीवित रहता है तथा निर्बल मारा जाता है। इसी मत्स्य न्याय को समाप्त करने के लिए धर्म की स्थापना की गयी थी।
धर्म की परिभाषा
अब जानते हैं कि धर्म क्या है। इस संपूर्ण सृष्टि में ईश्वर ने केवल मानव को वह शक्ति दी है जो किसी अन्य प्राणी में नही और वह है असीमित बुद्धि तथा ज्ञान अर्जित करने की शक्ति। एक मनुष्य अपनी क्षमता तथा कुशलता से कुछ भी कर सकता है। मानवों के द्वारा जंगलों को काटकर खेत, बस्तियां, नगर इत्यादि बनाये गए व वहां एक शासन व्यवस्था का निर्माण किया गया।
इस शासन प्रणाली में नियम, कानून, अधिकार, कर्तव्य इत्यादि निर्धारित किये गए तथा सभी को उसके अनुसार चलने की एक व्यवस्था बनायी गयी। इसका मुखिया एक सरदार, राजा, महाराजा इत्यादि को बनाया गया जिसका उत्तरदायित्व होता था इस शासन व्यवस्था का पालन करवाना।
इस शासन व्यवस्था के अनुसार सभी के लिए नियम निर्धारित थे जिसके द्वारा कमजोर व असहाय प्राणियों की रक्षा की जाती थी तथा सभी को न्याय दिया जाता था। इसी को धर्म की संज्ञा दी गयी जिसका पालन करवाने का उत्तरदायित्व राजा का होता था। राजा को यह विशेषाधिकार प्राप्त थे कि वे अनुचित कार्य करने वाले प्राणियों को दंड दे तथा सभी के लिया न्याय सुनिश्चित करे।
अधर्म की परिभाषा
अधर्म एक तरह से मत्स्य न्याय का ही रूप है लेकिन यह उससे थोड़ा भिन्न है क्योंकि मत्स्य न्याय को हम अधर्म की संज्ञा नही दे सकते। अधर्म वह होता है जो धर्म के विपरीत हो व धर्म मत्स्य न्याय के विपरीत नही अपितु उससे हटकर एक अलग न्याय व्यवस्था मानी जाती है।
जब मनुष्य के द्वारा नगरों का निर्माण किया गया तो वहां धर्म का पालन करवाना आवश्यक होता था लेकिन जब नगरों में भी राजा या नगरवासियों के द्वारा मत्स्य न्याय के नियमों पर चला जाये जिसमें एक राजा के द्वारा निर्बल प्राणियों के अधिकारों का शोषण किया जाये तथा शक्तिशाली प्राणियों को सरंक्षण दिया जाये तो इसे अधर्म की संज्ञा दी गयी।
एक नगर या बस्ती को बसाना धर्म की स्थापना के उद्देश्य से किया जाता था किंतु यदि उसमे भी जंगल के नियम लागू हो जाये तो इसे अधर्म कहा जाता था। इसे हम हमारे महाकाव्य का उदाहरण लेकर समझ सकते है।
धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश
हिंदू धर्म में भगवान विष्णु के मुख्यतया दो अवतार हुए जिन्हें श्रीराम तथा श्रीकृष्ण की संज्ञा दी गयी। श्रीराम भी एक नगरवासी थे तथा रावण भी लेकिन रावण नगरवासी होने के पश्चात भी बलपूर्वक अपना कार्य करवाता था। उसके द्वारा निर्बल प्राणियों की हत्या की जाती तथा उसका शोषण किया जाता जो कि अधर्म है। इसी प्रकार दुर्योधन भी चालाकी से दूसरों का शोषण करता। रावण तथा दुर्योधन के द्वारा केवल स्वयं के हितों की रक्षा की जाती तथा दूसरों की उन्हें कोई परवाह नही थी। यह अधर्म था तथा राजा के कर्तव्यों के बिल्कुल विपरीत भी।
इसलिये ही धर्म की पुनः स्थापना के लिए भगवान विष्णु ने श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया तथा रावण व दुर्योधन रुपी अधर्मियों का नाश कर धर्म की पुनः स्थापना की जहाँ सभी प्राणियों के अधिकारों की रक्षा की जाती थी।
Anupama Dubey