Indian Democracy: लोकसभा चुनाव की सरगर्मी तेज है। सभी पार्टियां एक दूसरे से आगे निकलने की रेस में हैं। सभी ने इसके लिए कमर कस ली है। वहीं आज हम बात करेंगे राजतांत्रिक व्यवस्था की। देश में राजतंत्र से लोकतंत्र बने एक लंबा अरसा बीत चुका है। राजपरिवार तो अभी भी हैं। लेकिन वह प्रणाली नहीं हैं, जिससे हम उन्हें अपना राजा मान सकें।
देश आजाद होने के बाद जो राजपरिवार लोकतांत्रिक व्यवस्था [Indian Democracy] में आ गए। वे आज सियासत में हैं। बाकी के राजघराने वाले बस नाम के ही रह गए हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या इनलोगों के लिए राजतंत्र ही सब कुछ था? सत्ता के लिए अपने ही परिवार के सदस्यों का सिर कलम करने वाले राजाओं ने कभी लोकतांत्रिक तरके से चुनाव लड़ने का नहीं सोचा होगा? तो इसका जवाब एक शब्द में है – ‘नहीं’।
दरअसल, इन राजघरानों के सदस्य अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के लिए प्रजा से वोट मांगने [Indian Democracy] में अपनी तौहीन समझते थे। जो प्रजा जन इनके आगे कभी नतमस्तक हुआ करते थे, आज ये उनके आगे वोट के लिए हाथ फ़ैलाने में शर्म महसूस करते थे। इनके लिए प्रजाजनों के आगे हाथ फैला कर वोट मांगना नाक का सवाल था। ये झुकना नहीं जानते थे। इसलिए देश आजाद होने के 75 वर्ष बाद इन राजघरानों और इनकी रियासतें केवल किस्से और कहानियों में सिमट कर रह गई हैं। ये राजनीतिक तौर पर अपनी विरासत को सहेजने में पूरीतरह असफल साबित हुए हैं।
आइए जानते हैं इन राजघरानों के बारे में जिन्होंने प्रजा के आगे कभी झुकना अथवा हाथ फैलाकर वोट मांगना उचित नहीं समझा।
अवध घराने के नवाब, जो जूते के कारण अंग्रेजों के चंगुल में फंसे
अवध घराने से एक सूक्ति काफी प्रचलित है – ‘ज्यादा नवाब न बनो’। दरअसल, यह मशहूर सूक्ति अवध के नवाब रहे वाजिद अली शाह के समय से है। कहानी शुरू होती है 1857 के गदर के समय से। जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जे के लिए लखनऊ के महल पर कब्ज़ा किया। उस समय नवाब भाग नहीं पाए। नतीजन उन्हें बंदी बना लिया गया। अंग्रेजी हुकुमत ने जब उनसे पूछा कि आखिर वे भागे क्यों नहीं ? तो, नवाब ने जो जवाब दिया। उसे सुनकर सब दंग रह गए।

दरअसल, नवाब ने बताया कि जब सिपाही उन्हें पकड़ने के लिए आ ही रहे थे कि सारे नौकर महल छोड़कर भाग चुके थे। उन्हें जूती पहनाने वाला कोई नहीं था। उस समय शाही हुकुमत खुद से जूती पहनना अपनी शान के खिलाफ समझती थी। यह किस्सा यह बताने के लिए काफी है कि राजतंत्र की रियासतें अपनी शान-ओ-शौकत के चलते लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बन पाईं।
विवादों के लिए मशहूर बनारस घराना
अब अवध से होते हुए पूर्वांचल का दिल कहे जाने वाले बनारस पहुंचते हैं। अपने गौरवशाली इतिहास और अपनी परम्पराओं के लिए प्रसिद्ध बनारस का राजघराना विवादों में इस कदर उलझा कि वह लोकतांत्रिक राजनीति [Indian Democracy] में कदम ही नहीं रख सका। बनारस रियासत के किस्सों से ज्यादा इसके विवाद मशहूर हैं। राजघराने के परिवार के सदस्य आए दिन कोर्ट-कचहरी से लेकर पुलिस थानों तक के चक्कर काट रहे हैं। एक ओर कुंवर अनंत नारायण सिंह हैं, तो दूसरी ओर उनकी दो बहनें। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार अनबन की वजह संपत्ति का बंटवारा है।

300 साल का पुराना नवाब परिवार का इतिहास
लखनऊ के नवाबों का इतिहास भी 300 से अधिक वर्षों से पुराना है। अंग्रेजी हुकूमत से पहले यह नवाब अवध के राजा हुआ करते थे। अंग्रेजों की हुकूमत आने के बाद भी सत्ता उन्हीं के पास थी। उन्होंने अंग्रेजों के अधीन रहना स्वीकारा था। लकिन आजादी के बाद से ये धीरे – धीरे सत्ता और राजनीति [Indian Democracy] से दूर होते गए। पिछले छह दशकों में केवल एक ही परिवार सक्रिय राजनीति में भागीदारी लेता है वह है, “बुक्कल नवाब का परिवार”।
लखनऊ की राजनीति में पहला चुनाव [Indian Democracy] बुक्कल नवाब के पिता नवाब मिर्जा मोहम्मद उर्फ दारा नवाब ने लड़ा था। 60 के दशक के करीब उन्होंने सैयद अली के खिलाफ चुनाव लड़ा था। उसके बाद बुक्कल नवाब पिछले 43 साल से राजनीति में सक्रिय हैं। उनके बेटे बुक्कल नवाब और अब पोते फैसल नवाब भी सक्रिय राजनीति में हैं। फैसल नवाब मौजूदा समय में नगर निगम के पार्षद हैं।
Highlights
दिलीपपुर राजघराने के हालात नाजुक
प्रतापगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित दिलीपपुर राजघराने की लड़ाई भी बनारस राजघराने की तरह सम्पत्ति को लेकर ही है। इस किले की सियासत [Indian Democracy] केवल ब्लॉक प्रमुख, बीडीसी एवं प्रधान तक ही सिमट कर रह गई है। कभी राजा अमरपाल सिंह विधान परिषद सदस्य बने थे। उनके बाद सियासत से परिवार के लोग दूर रहे। तीन बार राजा सूरज सिंह व रानी सुषमा सिंह दिलीपपुर की प्रधान रहीं। दिलीपपुर राजघराने की राजकुमारी भावना सिंह विरासत में मिली सियासत को आगे बढ़ाने के लिए तैयार हैं लेकिन पारिवारिक हालात को देखते हुए समय का इंतजार कर रही हैं।
राजनीति [Indian Democracy] में असफल रहे अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र
अयोध्या के राजा विमलेंद्र मिश्र ने साल 2009 में बसपा के टिकट पर फैजाबाद संसदीय सीट से चुनाव लड़ा। लेकिन, वे कांग्रेस के निर्मल से हार गए, जिसके बाद राजनीति से दूरी बना ली।
इलाहाबाद का मांडा राजघराना…वीपी सिंह के बाद कोई आगे नहीं आया
राजा मांडा के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भूदान आंदोलन में हजारों बीघा जमीन दान देकर इसको साबित भी किया था कि सामाजिक सरोकार से भी दिल से जुड़े थे। देश के प्रधानमंत्री पद का दायित्व [Indian Democracy] तक संभाला था। हालांकि, कभी राजनीतिक गतिविधियों की केंद्र रही राजा मांडा की कोठी पर अब सन्नाटा पसरा रहता है। अब उनके खानदान से कोई भी चुनाव नहीं लड़ता।
