वाराणसी। धर्म और आध्यात्म की नगरी काशी में सैकड़ों परम्पराएं जीवंत हैं। जिनका पालन लोग सदियों से करते आ रहे हैं। समय और आवश्यकता के हिसाब से लोग इन परम्पराओं में आमूल-चूल परिवर्तन करते रहते हैं. काशी को दुनिया के सबसे पुराने धार्मिक शहर होने का दर्जा मिला हुआ है। यहां दूर-दूर से लोग दर्शन करने आते हैं। वैसे तो काशी विश्वनाथ मंदिर विश्व भर में प्रसिद्ध है, लेकिन कॉरिडोर बन जाने के बाद से विश्व भर के लोगों का यहां पर तांता लगा रहता है। वाराणसी में शाम के समय में घाटों की खूबसूरती बेहद बढ़ जाती है। इन्हीं घाटों में से एक है वाराणसी का मणिकर्णिका घाट। मणिकर्णिका घाट के बारे में मान्यता है कि यहां की आग कभी ठंडी नहीं होती। वहीँ इस घाट से जुड़ी एक और परंपरा है, जहां एक और चिता जलती है तो दूसरी ओर नगरवधूओं का नृत्य होता है।
पड़ गए ना अचरज में ! मोक्ष की नगरी काशी में मृत्यु भी उत्सव है। महाश्मशान कहे जाने वाले मणिकर्णिका घाट पर साल में एक बार ऐसा मौका आता है, जब पैरों में घुंघरू बांध नगरवधुएं जलती चिताओं के बीच नाचती हैं। यह आयोजन चैत्र नवरात्र की सप्तमी तिथि को होता है। मणिकर्णिका घाट पर होने वाले इस आयोजन को अकबर के नवरत्न व सेनापति मानसिंह से जोड़कर देखा जाता है।

मानसिंह से जुड़ा इतिहास
काशी के पुरनियों के अनुसार, अकबर के सेनापति मानसिंह ने बनारस में भगवान शिव के एक मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। तब वह वहां एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन कराना चाहते थे, लेकिन श्मशान होने की वजह से कोई कलाकार वहां आने को तैयार नहीं था। तब बनारस की नगरवधुओं ने मानसिंह को यह संदेश भेजा कि वे उस सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा बनना चाहेंगी। तभी से इस कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन बेहद भव्य होता है। नृत्य करने के दौरान नगरवधुएं बाबा विश्वनाथ से प्रार्थना करती हैं कि उन्हें नगरवधू की जीवन से मुक्ति मिल जाए।

350 वर्ष से चल रहा आयोजन
महाश्मशान पर होने वाला यह आयोजन लगभग 350 वर्ष पुराना है। इस कार्यक्रम में सबसे पहले बाबा मसान नाथ का शिव और शक्ति स्वरूप में श्रृंगार होता है। साथ ही भंडारे का भी आयोजन किया जाता है। जिसमें हजारों भक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं। इन सभी कार्यक्रम के बाद बाबा मसान की आरती के पश्चात पैरों में घुंघरू बांध नगरवधुएं जलती चिताओं के बीच रात भर नृत्य करती हैं।