- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई राधाकृष्ण हुए थे प्रथम अध्यक्ष
- काशी के सप्तसागर मुहल्ले में घुड़साल में होती थी बैठकें
राधेश्याम कमल
वाराणसी। हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के निर्माण और प्रसार में केन्द्रीय भूमिका निभाने वाली 127 वर्ष पुरानी ऐतिहासिक महत्व की संस्था नागरीप्रचारिणी सभा के हालात इन दिनों चिंताजनक हैं। नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना क्वींस कॉलेज, वाराणसी की नौवीं कक्षा के तीन छात्रों बाबू श्यामसुंदरदास, पं. रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने इसी कॉलेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर की थी। बाद में इसकी स्थापना की तिथि इन्हीं महानुभावों ने 16 जुलाई 1893 निर्धारित की और आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष हुए। काशी के सप्तसागर मुहल्ले में घुड़साल में इसकी बैठकें होती थीं और बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना। पहले ही साल जो लोग इसके सदस्य बने, उनमें महामहोपाध्याय पं सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन, अम्बिकादास व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे भारत-ख्याति के विद्वान थे।
हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों की खोज का सभा ने चलाया देशव्यापी अभियान
नागरीप्रचारिणी सभा का योगदान बहुत बड़ा है। 1893 में स्थापित इस संस्था ने पचास सालों तक हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों की खोज का देशव्यापी अभियान चलाया। इन ग्रंथों के विधिवत पाठ-संपादन से तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, रहीम और रसखान जैसे कवियों की प्रामाणिक रचनावालियां प्रकाशित हुईं और शिक्षित भारतीय समाज उनसे परिचित हुआ। इसी सभा ने अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज विद्वानों की लगभग लगभग पचीस वर्षों की साझा मेहनत के फलस्वरूप हिंदी शब्दसागर नामक हिंदी का पहला, सबसे बड़ा, समावेशी और प्रामाणिक शब्दकोष तैयार किया। भारत की संविधान सभा और बाद में गठित अनेक आयोगों ने नियमों, कानूनों और संवैधानिक पदों के हिंदी प्रतिशब्द तैयार करने के लिए इसी शब्दसागर की मदद ली है। इस शब्दसागर की अहमियत का अंदाजा इस बात से भी लग जाता है कि इसकी भूमिका के तौर पर प्रकाशित आचार्य रामचंद्र शुक्ल-लिखित हिंदी साहित्य का इतिहास शीर्षक निबंध को पिछले एक हजार वर्षों के साहित्य के इतिहास की सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक आलोचना-पुस्तक के तौर पर आज तक पढ़ा जाता है। आजादी के पहले अदालतों में हिंदी को कामकाज की भाषा बनाने के लिए इस संस्था ने एक अखिलभारतीय आंदोलन चलाकर पाँच लाख हस्ताक्षरों का एक ज्ञापन संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर को सौंपा था. उसी समय हिंदी में सरकारी और अदालती कामकाज की सुविधा के लिए सभा ने एक कचहरी हिंदी कोश भी प्रकाशित किया। नागरीप्रचारिणी सभा के वाराणसी परिसर-स्थित आर्यभाषा पुस्तकालय की दुनिया-भर के अकादमिकों और बौद्धिकों के बीच बहुत इज्जत है. दरअसल वह भाषा और साहित्य का एक अनूठा संग्रहालय है. हस्तलेखों का इतना बड़ा संग्रह कहीं और नहीं है। वहीं; अनुपलब्ध और दुर्लभ ग्रंथों का ऐसा संकलन भी कहीं और मिलना मुश्किल है। आधी सदी पहले तक हिंदी के जानेमाने विद्वान अपने निजी पुस्तक-संग्रह इस पुस्तकालय को प्रदान करते रहे थे।

128 साल पुरानी संस्था नागरीप्रचारिणी सभा की हैं कई मुश्किलें
व्योमेश शुक्ल बताते हैं कि हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के निर्माण और प्रसार में अनिवार्य भूमिका निभाने वाली 128 वर्ष पुरानी संस्था नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी की हालत चिंताजनक थी। इस संस्था का लंबे समय से कतिपय लोग निजी लाभ के लिए मनमानेपन से संस्था की मूल्यवान चल-अचल संपत्ति का दुरुपयोग कर रहे थे। नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी-परिसर के पूर्वी हिस्से में स्थित प्रकाशन-कार्यों के लिए बनाया गया ऐतिहासिक भवन एक दवा व्यापारी को लीज डीड के जरिये दस साल के लिए दे दिया है। गौरतलब है कि उस भवन का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने किया था. उनके नाम का शिलापट्ट भवन के बाहर से हट गया है। नागरीप्रचारिणी सभा की अतिथिशाला में कतिपय लोगों का कब्जा है। उस अतिथिशाला के कमरे शोधार्थियों और साहित्यसेवियों के लिए दरअसल किसी के भी लिए उपलब्ध नहीं हैं. उसका कोई दाखिला रजिस्टर, बिल-बुक और आॅफिस आदि कुछ नहीं है। नागरीप्रचारिणी सभा के ऐतिहासिक मुद्रण और प्रकाशन विभाग अरसे से बंद हैं। अगर सभा द्वारा प्रकाशित सभी किताबें आज भी उपलब्ध हो जाएं तो हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों और शोधार्थियों समेत वृहत्तर हिंदी संसार न सिर्फ लाभान्वित होगा, बल्कि उनकी बिक्री से होने वाली आय से सभा का इकोसिस्टम भी सुधरा जा सकता है। वे किताबें आज अनुपलब्ध हैं और दूसरे प्रकाशक मौके का लाभ उठाकर, कॉपीराइट कानूनों का उल्लंघन करते हुए उन्हें चोरीछिपे छाप भी रहे हैं।

सवा सौ साल पुरानी एक हेरिटेज इमारत को संरक्षण की जरुरत
सभा का मुख्यभवन जिसमें हिंदी का सबसे पुराना आर्यभाषा पुस्तकालय है। सवा सौ साल पुरानी एक हेरिटेज इमारत है जिसे तत्काल सघन देखरेख और सरंक्षण की जरूरत है, जबकि रखरखाव के अभाव में वह जीर्णशीर्ण होकर गिरने की कगार पर है. भूतल पर उसका एक हिस्सा ढह भी गया है। व्योमेश शुक्ल बताते हैं कि सन 2000 के आसपास तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने 94 लाख रुपये की एक परियोजना में नोएडा-स्थित एक कंपनी सी-डैक के माध्यम से नागरीप्रचारिणी सभा में मौजूद सभी दुर्लभ पाण्डुलिपियों, हस्तलेखों और पोथियों का डिजिटाईजेशन करवाया था। लेकिन उस डिजिटाइजेशन की सीडी या सॉफ्ट कॉपी कहीं किसी के भी लिए उपलब्ध नहीं है। पांडुलिपियाँ और हस्तलेख न जाने किस हाल में हैं ? पता नहीं कुछ बचा भी है या नहीं. वे पाठकों और शोधार्थियों आदि के लिए उपलब्ध नहीं हैं। नागरीप्रचारिणी सभा के प्रकाशनों का इतिहास गौरवशाली रहा है। हिंदी शब्दसागर के 12 खंडों के अलावा इस संस्था ने इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की तर्ज पर 12 खंडों का हिंदी विश्वकोश 16 खंडों का हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास और 500 से ज्यादा ग्रंथ प्रकाशित किये।

एक समय तक यहाँ से प्रकाशित रिसर्च जर्नल नागरीप्रचारिणी पत्रिका का भी बड़ा मान रहा है। नागरीप्रचारिणी सभा ने ही आज से सौ साल पहले एम. ए. की कक्षाओं के लिए हिंदी का पहला पाठ्यक्रम बनाया था लेकिन इनदिनों सभा की हालत बहुत खराब है। यहां शोध, अनुसंधान, संपादन और प्रकाशन का काम पूरी तौर पर बंद है. दुर्लभ हस्तलेख, पांडुलिपियों और पुस्तकों का हाल भी खराब है, जिनके तत्काल संरक्षण की जरूरत है। सभा ने अपनी स्थापना से लेकर पचास के दशक तक हिंदी के प्रचार एवं प्रसार के लिए उत्सव किये और हिंदी की महान विभूतियों की शताब्दी उसने राष्ट्रीय स्तर पर मनाई। जिनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं जगन्नाथ दास रत्नाकर, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुन्दरदास, पद्मसिंह शर्मा, आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, कृष्णदेवप्रसाद गौड़, बेढब बनारसी आदि हैं। जब इस संस्था की स्थापना की गई तो इसका उद्देश्य हिंदी और देवनागरी लिपि का राष्ट्रव्यापी प्रचार एवं प्रसार था, उस समय न्यायालयों में या अन्यत्र सरकारी कामों में हिंदी का प्रयोग नहीं हो सकता था और हिंदी की शिक्षा की व्यवस्था वैकल्पिक रूप से मिडिल पाठशालाओं तक ही सीमित थी। हिंदी में आकर ग्रंथों का पूर्ण रूप से अभाव था। प्रेमसागर, बिहारी सतसई, तुलसीकृत रामायण और मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत जैसे ग्रंथ ही आकर-ग्रन्थ माने जाते थे, जो जहां-तहां मिडिल में वैकल्पिक रूप से पढ़ाये जाते थे। भारतेंदु और उनकी मित्रमंडली का साहित्य केवल साहित्यकारों के अध्ययन और चिंतन तक सीमित था।
सन 1905 में हुआ था भाषा सम्मेलन
सन 1905 में, काशी में कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर एक भाषा सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता सर रमेशचन्द्र दत्त ने की और उसमें नागरीप्रचारिणी सभा के प्रांगण में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह घोषणा की कि हिंदी ही भारत की भाषा हो सकती है और देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत की सभी भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए और यह कार्य सभा को करना चाहिए. तब से सभा निरन्तर प्रगति के नये आयाम इस दिशा में ढूँढ़ती और करती रही।
लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी ने की थी सभा की आर्थिक मदद
सर आशुतोष मुखर्जी सभा के न्यासी मण्डल के अध्यक्ष बने और बाद में लाला लाजपतराय इस पद पर आये। सर तेजबहादुर सप्रू ने उस युग में सभा की आर्थिक एवं नैतिक सहायता की जो तब कई सहस्त्र रुपयों की थी। पं. गोविन्दवल्लभ पंत सन 1908 से प्रतिमाह 1.50 रुपये से सभा की सहायता करने लगे और उन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक जीवन की शुरूआत अपनी संस्था प्रेम सभा को नागरीप्रचारिणी सभा से संबद्ध करके की। उस समय के राजा-महाराजाओं में काशी नरेश, उदयपुर, ग्वालियर, खेतड़ी, जोधपुर, बीकानेर, कोटा, बूँदी, रीवाँनरेश आदि ने जहाँ इसे सहायता पहुँचाई। वहीं कर्मवीर मोहनदास करमचंद गाँधी ने भी इसकी कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में सहायता की और सन् 1934 में यंग इंडिया में उन्होंने सभा की सहायता के लिए अपने हस्ताक्षर से अपील की। पं. मोतीलाल नेहरू ने भी सभा की धन से सहायता की. सी.वाई.चिन्तामणि ने विधान परिषद् में सभा के भाषा के संबंध में विचारों का बराबर समर्थन किया तथा सर सुंदरलाल आदि ने इसकी भरपूर सहायता की। हिंदी की सबसे प्राचीन शोध पत्रिका नागरीप्रचारिणी पत्रिका है जिसका सारे संसार के खोज जगत में अद्भुत मान है. यह सन् 1897 से निकल रही है. यह स्मरणीय है कि इस पत्रिका के सम्पादक मण्डल में बाबू श्यामसुन्दरदास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, चन्द्रधर शर्मा ह्यगुलेरीह्ण, विद्यालंकार, डॉ. संपूणार्नंद, आचार्य नरेंद्रदेव, हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे महान विद्वान रहे हैं।