Suicide Cases: आत्महत्या…ये शब्द आज के समय में मानो एक आम-सी बात हो गई है। समय ऐसा हो गया है कि देश के युवाओं को अपनी परेशानियों से निपटने का एक ही रास्ता समझ आने लगा है, वो यही आत्महत्या का रास्ता है। टूटते परिवार, आर्थिक दबाव और गहरी खामोशी के बाद अब जो परिस्थिति युवाओं को बीच बन जा रही है, उसने कई दुविधाओं को उत्पन्न कर दिया है। वहीं देश में युवाओं के बीच आत्महत्या की बढ़ती घटनाएँ गंभीर सामाजिक संकट का संकेत दे रही हैं।

हालात ऐसे हो गए हैं अब तो घटनाएँ चौंकाती नहीं बल्कि रोजमर्रा की कहानी बनती जा रही है। अभी हाल ही में दिल्ली के 28 वर्षीय सिद्धार्थ ने अपने फ्लैट में आधी रात अपनी जिन्दगी को अलविदा कह दिया। उसने एक लंबी सांस ली। नौकरी जा चुकी थी, EMI का उसपर दवाब था, रिश्ते बिखर चुके थे और मां का व्हाट्सप पर मैसेज पड़ा था कि ‘बेटा कब आ रहे हो’ लेकिन उस बेटे ने अगली सुबह ही ना देखी। सुबह घर का दरवाज़ा पुलिस ने तोडा और उन्हें बगल में पड़े सिद्धार्थ के सुसाइड नोट (Suicide Cases) में सिर्फ एक वाक्य लिखा रहा कि “मैं किसी के लिए बोझ नहीं बनना चाहता।”
क्या कहती है NCRB की आंकडें
ये कोई कहानी नहीं, अगर हम बात करें NCRB के 2022 के आंकड़ों की, जो बताते हैं कि भारत में हर दिन 467 आत्महत्याएँ होती हैं। 2024-25 में यह संख्या और बढ़ी है। सबसे चिंताजनक पहलू है कि आत्महत्या (Suicide Cases) करने वालों में बड़ी संख्या 35 वर्ष से कम उम्र के युवाओं की है, वह पीढ़ी जो डिजिटल दुनिया में कदमताल करती है, करियर और सफलता के पीछे भागती है, और अंततः मानसिक तनाव की चपेट में आकर असहाय हो जाती है और आत्महत्या कर लेते है।
टूटता हुआ परिवार, बिखरता मनोबल
समाजशास्त्रियों का मानना है कि पारिवारिक ढांचा तेजी से कमजोर (Suicide Cases) हो रहा है। संयुक्त परिवारों की जगह दो कमरों के फ्लैटों ने ले ली है, जहाँ साथ रहकर भी लोग एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। बच्चों का समय अब दादी–नानी की कहानियों में नहीं, बल्कि मोबाइल स्क्रीन पर गुजरता है। माता-पिता भी अपने डिजिटल संसार में व्यस्त रहते हैं। बच्चों को कहा जाता है कि रोना बंद करो… जाओ, यूट्यूब देखो और जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उन्हें महसूस कराया जाता है कि प्यार की कीमत ‘परफॉर्मेंस’ है, अगर तुम अच्छा परफॉर्म करोगे तभी तुम्हारी कोई इच्छा पूरी होगी वरना तुम्हे नफरत के लावा और कुछ नहीं मिलेगा।

वहीं शहरों में तलाक के मामलों में 2020 के बाद से तेज़ बढ़ोतरी दर्ज हुई है। बुजुर्गों के लिए ओल्ड-एज होम भरते जा रहे हैं। विदेश गए बच्चे माता-पिता के जीवन में सिर्फ वीकली वीडियो कॉल बनकर रह जाते हैं। रिश्ते औपचारिक संदेशों—“हाय-हैलो”, “हैप्पी बर्थडे”—तक सीमित होते जा रहे हैं। इंसान अकेला नहीं होता—उसे अकेला कर दिया जाता है।
आर्थिक दबाव ने बनाई घुटन की दीवार
नौकरी की अनिश्चितता, बढ़ती जीवन-शैली की लागत, कोचिंग और शिक्षा पर भारी खर्च…ये सब मिलकर युवाओं पर एक अदृश्य बोझ लाद रहे हैं। कई युवा वर्षों की मेहनत के बाद भी जब स्थिर नौकरी नहीं पाते, या अचानक नौकरी चली जाती है, तो आर्थिक और भावनात्मक दबाव (Suicide Cases) मिलकर उन्हें तोड़ देते हैं। किराया, क्रेडिट कार्ड बिल और EMI का बोझ कई बार उन्हें मौत के रास्ते की ओर धकेल देता है।
मानसिक तनाव को लोग समझते हैं ओवरथिंकिंग
भारत में मानसिक स्वास्थ्य को अभी तक गंभीरता से नहीं लिया गया। डिप्रेशन को मज़ाक समझा गया, चिंता को ‘ओवरथिंकिंग’ कहकर हटा दिया गया। लड़कों को रोने पर ‘कमज़ोर’ कहा गया और मदद माँगने वालों को ‘पागल’ का टैग दिया गया। रिसर्च बताते हैं कि आत्महत्या (Suicide Cases) करने वाले लगभग 90% लोगों में पहले से डिप्रेशन के लक्षण मौजूद थे, लेकिन इलाज किसी ने नहीं करवाया।

सबसे खतरनाक बिमारी बन चुकी है खामोशी
आपने अक्सर यह देखा होगा कि वह व्यक्ति, जो सामने से सबसे ज्यादा मुस्कुराता है, भीतर सबसे ज्यादा टूट चुका होता है। ऑफिस का हँसमुख लड़का रात में रोता है, स्टेटस में “लाइफ़ इज़ ब्यूटीफुल” लगाने वाली लड़की उसी रात खुदकुशी (Suicide Cases) कर लेती है। उन्हें ऐसा लगता है कि कभी किसी ने उनसे पूछा ही नहीं- “तुम सच में ठीक हो?”
इन्हें सबको देखते हुए समाज को बदलना होगा। परिवारों (Suicide Cases) को फिर से भावनात्मक सहारा बनना होगा। बात करने का, सुनने का माहौल बनाना होगा। बच्चों को यह बताना होगा कि असफलता अपराध नहीं है। “तू फेल हो गया” की जगह “मैं तेरे साथ हूँ” कहना होगा। कई बार सिर्फ एक फोन कॉल, एक संदेश, या एक सादा सवाल किसी की जान बचा सकता है।

