- हजारों दीयों से शुरू हुई देवदीपावली {Devdiwali} अब लक्खा में तब्दील
- पंचगंगाघाट पर की गई थी इसकी शुरूआत, जलाया गया था हजारा दीपक
- प्रारंभ में बिंदुमाधव व दुर्गाघाट की सीढ़ियों पर जले थे दीये
- बालाजीघाट, दुर्गाघाट, जटारघाट, रामघाट पर इसके बाद जलाये गये दीप
वाराणसी। काशी में देवदीपावली {Devdiwali} की परम्परा वैसे तो सदियों पुरानी है। राजा रजवाड़े पहले इसे गंगा घाटों पर धूमधाम से मनाते थे। राजा-रजवाड़ों का जब राज्य खत्म हुआ तब देवदीपावली धीरे-धीरे विलुप्त होती चली गई। कार्तिक मास में वैसे तो काशी के गंगा घाटों पर आकाशदीप जलाने की परम्परा अब भी चली आ रही है। सन् 1983 में पंचगंगा घाट पर कार्तिक मास में दीपक प्रज्जवलित होते थे। महाराष्ट्र समाज के बैनर तले बिंदुमाधव व दुर्गाघाट की सीढ़ियों पर दीपक प्रज्जवलित होते थे।

पंचगंगा घाट पर उन दिनों प्रात:कालीन गंगा आरती की शुरुआत हुई थी। पंचगंगा घाट पर अहिल्याबाई की ओर से स्थापित हजारा स्तंम्भ में कार्तिक पूर्णिमा {Devdiwali} के दिन दीपक प्रज्जवलित होते थे। हजारों दीयों के रूप में शुरू हुई देवदीपावली अब लक्खा दीयों में तब्दील हो चुकी है। उन दिनों देवदीपावली समिति के संस्थापक अध्यक्ष पं. नरायन गुरु एवं सचिव पं. आचार्य वागीश दत्त मिश्र रहे। सही मायने में देखा जाय तो इन्हीं दोनों लोगों ने अपनी मेहनत, लगन, परिश्रम के बलबूते इस देवदीपावली को कहां तक पहुंचा दिया। इसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की थी।

नब्बे के दशक में देवदीपावली {Devdiwali} दशाश्वमेधघाट तक पहुंची
वर्तमान में केन्द्रीय देवदीपावली के अध्यक्ष आचार्य पं. वागीश दत्त मिश्र बताते हैं कि अस्सी के दशक (83 से 89 तक) देवदीपावली पंचगंगाघाट और इसके आसपास तक सीमित रही। नब्बे के दशक में देवदीपावली {Devdiwali} दशाश्वमेधघाट तक पहुंच गई। इसके बाद तो देवदीपावली का दायरा लगातार बढ़ता ही चला गया। वर्तमान में काशी के 90 घाटों व 75 सरोवरों व कुंडों पर देवदीपावली का आयोजन किया जा रहा है।
क्षेत्रीय नागरिकों के सहयोग से मिलते थे तेल और दिये
उन्होंने हर गली-मुहल्लों में जाकर कहीं से तेल तो कहीं से दीया तो कहीं से रूई लिया। वे बताते हैं कि 1985 में क्षेत्रीय नागरिकों के सहयोग से उन्हें सात टीन तेल मिला। इसके साथ ही घाटों पर देवदीपावली {Devdiwali} की परम्परा की शुरुआत हुई। इस कार्य में उन्हें काशी के पुराण व वेदों के मर्मज्ञ व कर्मकांडी ब्राह्मणों का विशेष सहयोग मिला।
इसमें प्रमुख रूप से भीऊ पटवर्धन, वैकुंठनाथ पाठक, लक्ष्मीकांत दीक्षित, गणेश्वर शास्त्री द्रविड़, पं. जर्नादन शास्त्री रटाटे, ईश्वर दास रहे। सर्वप्रथम पंचगंगाघाट, बिंदुमाधव घाट, दुर्गाघाट, बालाजी घाट, जटारघाट, रामघाट की सीढ़ियों पर दीपक प्रज्जवलित किया गया।
1985 में संस्थापक पं. नरायन गुरु इस अभियान से जुट गये
पं. नरायन गुरु के मुताबिक उन दिनों वह दुर्गाघाट की प्रसिद्ध मुक्की दंगल देखने गये थे। उस वक्त बिंदुमाधव व दुर्गाघाट की सीढ़ियों पर दीपदान {Devdiwali} की छटां को देख कर मन में यह विचार आया कि यह दीपक काशी के समस्त घाटों पर यदि प्रज्जवलित हो तो शिव की नगरी में एक अद्भुत नजारा होगा। इसके बाद उन्होंने काशी के कुछ विद्वतजनों से वार्ता की तो उन्होंने देवदीपावली के पौराणिक महत्व के बारे में बताया। पं. नरायन गुरु 1985 में इस अभियान से जुट गये थे।

जगह में हुई कमी तो गंगा पार रेती में भी मनायी जाने लगी देवदीपावली
पं. नरायन गुरु ने बताया कि इसमें तीर्थ पुरोहित समाज, महाराष्ट्र समाज, नेपाली समाज ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। साथ ही मंगला क्रिकेट गुरु एकादश महादेव क्लब, महामाया दुर्गोत्सव समिति, मेहता क्लब के बच्चों ने भी हिस्सा लिया था। एक समय ऐसा भी आया जब देवदीपावली {Devdiwali} के आयोजन के लिए काशी के गंगा घाट का स्थान कम पड़ने लगा जिस पर गंगा पार रेती में भी देवदीपावली मनायी जाने लगी और आज के समय में ये दुनिया भर में शुमार है।