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Home राज्य उत्तर प्रदेश वाराणसी

बदलते परिवेश में मुश्किल हुआ पशुपालन, युवाओं का हो रहा मोहभंग, पढ़िए हालात

by Abhishek Seth
February 21, 2023
in वाराणसी
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बदलते परिवेश में मुश्किल हुआ पशुपालन, युवाओं का हो रहा मोहभंग, पढ़िए हालात
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  • पशुपालक के घर बेटी का रिश्ता करने से कतरा रहे लोग
  • पशुओं को नहलाने, चारा काटने में बढ़ गया मशीनीकरण
  • अब नहीं बिक रही उपली तो कैसे चलाएं परिवार का खर्च

सुरोजीत चैटर्जी/ रामदुलार यादव

वाराणसी। एक समय था जब घरों के आसपास बड़े-बड़े भूभाग हुआ करते थे। उन पर घास व पेड़-पौधे थे। बाग-बगीचों और जंगल का अभाव नहीं था। उस दौर में पशुपालक अपने पशुओं को घुमाते-फित्राते थे। उन स्थलों पर चरकर जानवरों का पेट भर जाता था। पशु घर लौटकर दूध देतीं तो सब मुनाफा ही मुनाफा होता। जिनके घर ज्यादा जमीन और पशु होते वो ‘बड़े लोग’ कहे जाते। वह वक्त गुजरे बमुश्किल 15-20 साल ही हुए होंगे। लेकिन बदलते दौर के साथ अब पशुपालन मुश्किल हो चुका है। पशुपालकों के परिवार के युवाओं का रुझान अब पशुपालन की ओर नहीं है। वर्तमान में यह पेशा या तो शौकिया किया जा रहा है अथवा बाध्यता के कारण। तमाम मामलों में स्थिति यह आ गयी है कि पशुपालन का कारोबार करने वालों के यहां लोग अपनी बेटी की रिश्ता करने में हिचकने लगे हैं।
नंद बाबा के घर एक लाख से अधिक गाएं थीं। उन गायों को भगवान श्रीकृष्ण अपनी बंसी बजा-बजाकर चराते थे। गायें दिनभर जंगलों में चरतीं। यमुना में पानी पीतीं और मस्त रहतीं। शाम को घर आतीं, दूध देतीं। तब मक्खन और घी भी खूब मिलता। धीरे-धीरे वक्त के करवट बदली। आज मक्खन और घी पशुपालकों के घर भी मिलना बड़ी बात हो गयी है। कारण, अब न तो खाली जमीनें हैं और न ही उतने जंगल। पशुओं से एक बूंद भी दूध निकालने के लिए पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं। बीते 80-90 के दशक तो क्या सन 2000 तक चारा मशीन हाथों से चलाया जाता था।
कुएं से पानी ले लिया करते थे। तालाबों में पशु स्नान कर लेते। लेकिन आज सबकुछ बदल चुका है। तालाब में पानी नहीं है। और अगर पानी है भी तो उनमें गांव का दूषित पानी भरा रहता है। हालांकि तालाबों को साफ-सुथरा करने के लिए कई स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। वर्तमान में चारा काटने की आवश्यकता हो या पशुओं को नहलाने की जरूरत, बगैर बिजली पंप नहीं चलेगा। सो, उसके सबमर्सिबल पंप का उपयोग सामान्य-सी बात हो चुकी है। वहीं, भले ही लोगों के लिए दूध अमृत समान है लेकिन यह अमृत पिलाने वाले पशुपालकों के सम्मान में कमी आयी है।

रसोई गैस ने बढ़ाई मुश्किलें

प्रदूषण घटाने और लोगों की सेहत का ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री उज्वला योजना के माध्यम से लगभग सभी घर के किचन में गैस सिलेंडर और चूल्हा पहुंच चुका है। लोग गैस पर खाना बनाने लगे हैं। फलस्वरूप गोवंशों के प्राप्त गोबर से तैयार उपले या उपली के खरीदार बहुत मुश्किल से मिल रहे हैं। पहले लोग घर की दिवारों पर गोबर की उपली चिपकाते थे। वह उपली शहर में जाकर बेच दिया जाता था। उपली बेचने से प्राप्त पैसों से कुछ हद तक घर के खर्च का बोझ कम होता था। अब दिवारों को छोड़िए गांवों में कहीं-कहीं ही उपली के टीले (उपरउर) दिखते हैं। आज उपली कम गोबर के ढेर हर जगह फेंके हुए दिख जाएंगे।

पशुपालन से युवा वर्ग करने लगे परहेज

पशुपालन से यूथ का मोह भंग हो गया है। उनका तर्क है कि अच्छी पढ़ाई-लिखाई इसलिए नहीं किये कि घर में जानवरों की देखभाल करें और गोबर काछें। आज का युवा शिक्षित होने के साथ ही साथ समय और मेहनत समेत आमदनी व खर्च का गणित लगा रहे हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें लग रहा है कि यह बिजनेस घाटे का सौदा है।

…दूध से जादे त बिजली क मीटरवा चलत बा

आयर ग्राम पंचायत के सौरभ मिश्र और दिलीप मिश्रा कहते हैं कि मेरे पास आज भी अच्छी भैंसे हैं फिर भी घाटा उठाना पड़ रहा है। अब भविष्य में पशुपालन से तौबा करने का मन बना चुके हैं। अमहदपुर के रोहित यादव के मुताबिक यह धंधा पर मुनाफे का सौदा नहीं रह गया है।

कानूडीह के विद्या प्रकाश ने ठेठ अंदाज में कहा कि भइया दूध से जादे त बिजली क मीटरवा चलत बा। अब हाथ से मेहनत करे क जुग खतम हो गयल। छोट होत परिवार आउर लइकवन का पढ़ाई-लिखाई क खर्चा सम्हारे बदे मसिनवै से काम करना जरूरी हो गयल बा।


आयर के गिरिजा शंकर मिश्र ने कहा कि मेरे बचपन के दौरस में पशुओं को छोड़ दिया जाता था। वो दिनभर चरकर अपने आप घर आ जाती थीं। हर तरफ सिवान खाली था। लेकिन तस्वीर बदल चुकी है। जिसके पास कम से कम दस पशु हों और वो शहर जाकर दूध नापे तब उसे कुछ आमदनी हो सकती है लेकिन इतनी आय नहीं कि मजदूरी भी आसानी से निकल जाए।
एक बुजुर्ग दादा ने तो यहां तक कह दिया कि लड़के की शादी के लिए रिश्ता ढूंढ़ने के दौरान यदि लड़की वालों को पता चल गया कि उसके यहां तबेला है तो वो अपनी बेटी को ऐसे परिवार में •ोजने से पीछे हट जाता है। उनकी सीधी चिप्पणी होती है कि ‘के जाई गोबर फेंकना के इहां बिहा करय’। पशुपालकों का कोई इमेज नहीं रह गयी है। जाल्हूपुर के संतोष यादव ‘गब्बर’ के अनुसार लोग गौशाला का गोबर अब मुफ्त में देना पड़ता है ताकि तबेले में गोबर एकत्र न हो। मोकलपुर के शोभनाथ यादव ने कहा कि पशुपालन के परंपरागत काम में अब पहले जैसी बात नहीं रह गयी है।

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